18 जुलाई 1850 जयंती विशेष, डोगरा राजवंश के महाप्रतापी राजा प्रताप सिंह की कहानी, जिन्होंने 40 साल के राज में जम्मू कश्मीर को स्वर्ग बना डाला था
जम्मू में डोगरा राजवंश के संस्थापक महाराजा गुलाब सिंह थे। गुलाब सिंह का राजा के तौर पर राजतिलक महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया था। गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार लद्दाख, गिलगित और बल्तीस्तान तक किया। 1846 में कश्मीर घाटा भी इसमें शामिल हो गई। इस प्रकार चर्चित जम्मू-कश्मीर रियासत ने मानचित्र पर अपना स्थान ग्रहण किया, जिसकी सीमाएँ एक ओर तिब्बत और दूसरी ओर अफगानिस्तान व रूस से मिलती थीं। गुलाब सिंह ने अगस्त, 1857 में अंतिम श्वास ली। उनके बाद उनके 26 साल के बेटे राजगद्दी पर बैठे। रणवीर सिंह के चार पुत्र हुए। सबसे बड़े प्रताप सिंह थे। उसके बाद के राम सिंह, अमर सिंह और लछमण सिंह थे। लछमण सिंह की मृत्यु तो पाँच साल की अल्प आयु में ही हो गई। राम सिंह की मृत्यु भी, जब वे 45 साल के थे, हो गई थी। लगभग तीस साल राज्य करने के बाद 55 साल की उम्र में 12 सितंबर, 1885 को रणवीर सिंह की मृत्यु हो गई और परंपरानुसार उनके बड़े सुपुत्र प्रताप सिंह का राजतिलक हुआ।
अगले कुछ वर्षों में ही प्रताप सिंह ने राज्य को बखूबी संभाल लिया और राज्य की सीमा में विस्तार करना शुरू कर दिया। 1891 में प्रताप सिंह की सेना ने गिलगित की हुंजा वैली, नागर और यासीन वैली को भी अपने राज्य में मिला लिया। अब प्रताप के राज्य की सीमाएं उत्तर में रूस तक मिलने लगी थी। हालांकि अंग्रेज इस दौरान प्रताप सिंह की सत्ता को चुनौती की लगातार कोशिश करते रहे। लेकिन तमाम साजिशों के बावजूद भी महाराजा प्रताप सिंह डोगरा राजवंश में सबसे ज्यादा काल, 40 सालों तक सत्ता करने में कामयाब रहे।
अपने कार्यकाल के दौरान प्रताप सिंह ने ढेरों सामाजिक, आर्थिक औऱ ढांचागत विकास कार्य करवाये। जिनकी झलक आज भी जम्मू कश्मीर में देखने को मिलती है।
.प्रताप सिंह की मदद से पहले श्रीनगर में एनी बेसेंट ने द हिंदू कॉलेज की स्थापना की। जिसको 1905 में प्रताप की सरकार ने टेक-ऑवर कर लिया। बाद में इसी कॉलेज का नाम श्री प्रताप सिंह कॉलेज पड़ा।
.इसके अलावा जम्मू में भी महाराजा ने प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज की स्थापना की। बाद में जिसका नाम जीएम साइंस कॉलेज रखा गया।
.श्रीनगर में ही अमर सिंह के नाम पर एक टेक्निकल इंस्टीट्यूट की भी स्थापना महाराजा ने की थी।
महाराजा प्रताप सिंह ने श्रीनगर और जम्मू दोनों शहरों में सरकारी अस्पताल बनवाये। ताकि हेल्थ के मामले में जम्मू कश्मीर आत्मनिर्भर बन सके।
.वो महाराजा प्रताप सिंह ही थे, जिन्होंने जम्मू और श्रीनगर दोनों शहरों में फिल्टर पानी के सप्लाई की व्यवस्था चालू करवाई।
.श्रीनगर में मॉडल एग्रीकल्चरल फार्म शालीमार बाग को भी महाराजा प्रताप सिंह ने ही बनवाया था।
सुंबल ब्रिज के पास जल परिवहन की व्यवस्था का चित्र
यातायात को सुधारने के लिए प्रताप सिंह ने जम्मू से सियालकोट तक रेल लाइन बिछवाई और रेलवे सर्विस शुरू की। 2 बड़े ट्रंक रोड़ बनवाये, जिसमें से एक 132 मील लंबा झेलम वैली रोड़ था। जोकि कश्मीर वैली को कोहाला से जोड़ता था। दूसरा 203 मील लंबा बनिहाल कार्ट रोड़, जोकि कश्मीर वैली को जम्मू से जोड़ता है।
.बिजली के लिए राज्य को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मोहारा पावर प्रोजेक्ट को शुरू करवाया।
.श्रीनगर और जम्मू में म्यूनिसिपल प्रशासन की व्यवस्था शुरू करवाई। जिसका काम सैनिटेशन और बाकी लोकल शहरों के विकास कार्यों को देखने का था।
.नदियों की सफाई से लेकर पुनर्उद्धार का काम भी महाराजा प्रताप सिंह ने करवाया। सूखे के दौरान झेलम में पानी बना रहे इसके लिए छाताबल डैम का निर्माण करवाया।
.महाराजा हरि सिंह 1907 में डोगरा कोर्ट में पर्शियन लैंग्वेज के स्थान पर उर्दू को शामिल किया।
.श्रीनगर के कईं मुस्लिस शैक्षणिक संस्थानों के लिए महाराजा प्रताप सिंह ने भारी आर्थिक मदद की। श्रीनगर के इस्लामिया हाई स्कूल को 3 हजार रूपये प्रति माह आर्थिक सहायता दी। अनेकों मुस्लिम स्कूलों को सरकारी मान्यता से लेकर मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप तक की व्यवस्था करवाई। 3200 रूपये जरूरतमंद मुस्लिम छात्रों की सहायता के लिए प्रति वर्ष मुहैया करवाये। मुस्लिम स्कूलों में टीचर्स की व्यवस्था करवाई। इसके लिए भी आर्थिक सहायता की।
1958 में अपने भाई अमर सिंह के साथ चंदनवाड़ी में अमरनाथ यात्रा के लिए छड़ी पूजा करते हुए प्रताप सिंह, सौजन्य- विक्रमादित्य सिंह
महाराजा प्रताप के राजवंश में पारिवारिक साजिश और भतीजे हरि सिंह को उत्तराधिकारी बनाने की कहानी
प्रताप सिंह के कोई संतान नहीं थी। प्रताप सिंह के राजगद्दी पर बैठने के दस साल बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह के घर हरि सिंह का जन्म हुआ। कुल मिलाकर 1895 में गुलाब सिंह के परिवार में केवल तीन प्राणी जीवित थे। प्रताप सिंह, जो रियासत के महाराजा थे। उनके भाई अमर सिंह, जो राजा थे और हरि सिंह, जिनकी उम्र केवल कुछ दिनों की थी और वे ही इस राजवंश के अकेले वारिस थे। | हरि सिंह के जन्म पर सारी रियासत में खुशियाँ मनाई गईं।उस दिन सभी महलों में और पूरे जम्मू नगर में दीपमालिका की गई। पूरे राज्य में सभी मजहबों और जातियों के लोग खुशियों से झूम रहे थे। उन दिनों देश की रियासतों में राजपरिवार के घर राजकुमार का जन्म लेना आम जनता के लिए खुशियाँ मनाने का अवसर माना जाता था। मछलियाँ पकड़ने, शिकार खेलने और किसी भी प्रकार की जीव-हत्या पर कुछ दिनों के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। मंदिरों-मसजिदों को दान दिया गया। विद्यालयों में मिठाई बाँटी गई। कैदियों की सजा मुआफ कर दी गई और गरीबों में खैरात बाँटी गई।
उनके पिता राजा अमर सिंह की अपने भाई महाराजा प्रताप सिंह से नहीं बनती थी। अंग्रेजों ने महाराजा प्रताप सिंह से सभी अधिकार छीन लिये और उसके स्थान पर जिस परिषद् का गठन किया गया था, उसके मुखिया भी हरि सिंह के पिता अमर सिंह ही बनाए गए थे। जब हरि सिंह अभी चौदह साल के ही थे, तभी उनके पिता अमर सिंह की 1909 में मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार वंश परंपरा में केवल हरि सिंह ही बचे थे। महाराजा प्रताप सिंह हरि सिंह से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनकी पत्नी महारानी चडक हरि सिंह के प्रति बहुत ही शत्रुतापूर्ण रवैया रखती थी। महाराजा हरि सिंह के ही शब्दों में, "वह मुझसे बहत घणा करती थी और यदि उसका बस चलता तो वह मुझे मरवा ही देती। उसकी एक ही इच्छा रहती थी कि मैं किसी प्रकार भी उसके पति की राजगद्दी का उत्तराधिकारी न बन पाऊँ। इसलिए वह सदा महाराजा प्रताप सिंह के मन में मेरे प्रति जहर भरती रहती थी। वह हर रोज कोई-न-कोई नई चाल निकालती थी, ताकि मैं गद्दी पर न बैठ उसने पुंछ के राजा, जो जम्मू राज के अधीनस्थ ही था, के बेटे को गोद ले लिया ताऊजी उसकी इन सब चालों को जानते थे, लेकिन उसका ताऊजी पर ऐसा नियंत्रण था कि वे उसके सामने विवश थे और उसका सामना नहीं कर सकते थे। वे किसी भी की पर उसे नाराज नहीं कर सकते थे। वे उसके कहने पर दिन को रात और रात को दिन कहते थे। महाराज प्रताप सिंह जानते थे कि महारानी मेरे बहुत खिलाफ थी, लेकिन इस पर चुप ही रहते थे। महारानी चडक प्रयास करती रहती थी कि महाराजा सार्वजनिक रूप से दत्तक पुत्र के पक्ष में व्यवहार करें, लेकिन उन्होंने इसके बारे में कभी एक शब्द तक नहीं कहा। चडक, रियासत के दीवान को भी मेरे खिलाफ गुमनाम पत्र लिखाती रहती थीं।“वह ब्रिटिश रेजीडेंट को भी उपहार भेजती रहती थी, ताकि उससे अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करवाने में सहायता ले सके।"वह दिल से तो मेरी मौत ही। देखना चाहती थी। इसके लिए वह कोई भी घटिया से घटिया तरकीब अपना सकती थी। यदि मेरी मौत हो जाती तो उसकी इच्छा पूर्ति के रास्ते की बाधा दूर हो जाती। महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह मेरे शुभचिंतक थे। वे निरंतर मुझे सावधान करते रहते थे कि मैं । महारानी के हाथ से लेकर कोई भी चीज न खाऊँ। वह तो मुझे यहाँ तक आगाह करते थे। | कि मैं अपने महल में भी कोई चीज खाने से पहले, किसी और को खिलाकर जाँच कर हूँ कि कहीं उसमें जहर तो नहीं मिला हुआ? इन्हीं षड्यंत्रों के कारण मैं ज्यादातर राज्य से बाहर ही रहना चाहता था। परिवार में इस कलह और षड्यंत्रों के कारण वातावरण कैसा रहा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इन्हीं षड्यंत्रों के चलते हरि सिंह की पत्नी को जहर देकर मार दिया गया था और उन्हें अपना जीवन हर पल हर क्षण खतरे में लगता था।
राजवंश परंपरा की चिंता
लेकिन राजपरिवार निस्संतान था, इसको लेकर चिंता तो राजवंश में थी ही। महाराजा प्रताप सिंह बुढे हो रहे थे और वंश में औलाद नहीं थी। उधर उनके भतीजे हरि सिंह ने बिल्लौरन की मौत के बाद ही सोच लिया था कि अब किसी और से शादी नहीं करूगा, लेकिन इस समय सबसे बड़ा सवाल किसी भी तरह वंश परंपरा को चलाए रखने का था। महारानी चडक ने एक रास्ता और निकाल लिया था। दत्तक पुत्र ले लेने का, लेकिन महाराजा समेत सभी दरबारी जानते थे कि इसके पीछे वंश परंपरा को चलाए रखने की इतनी चिंता नहीं है, जितनी हरि सिंह को भविष्य में राज सिंहासन से महरूम कर देने की। इसलिए हरि सिंह पर शादी कर लेने के लिए सभी ओर से दबाव पड़ रहा था। अंततः हरि सिंह ने तीसरी शादी सौराष्ट्र की रियासत धर्मकोट के महाराजा की बेटी से 30 अप्रैल, 1923 को की। इस शादी के लिए उन पर महाराजा प्रताप सिंह। ने दबाव डाला था, ताकि पुत्र प्राप्ति से वंश परंपरा चलती रहे।''17 नई रानी महारानी धनवंत कुँवेरी बाईजी साहिबा के नाम से जानी गई। अभी तक रियासत के राजवंश की जितनी शादियाँ हुई थीं, वह धनाढ्य भूपतियों के परिवारों में हुई थीं। यह पहली शादी थी, जो किसी राजवंश की लड़की से हो रही थी। इस शादी में धर्मकोट नरेश ने इतना दहेज दिया कि जम्मू स्तब्ध रह गया। महारानी के साथ ही उनके नौकर-चाकर इत्यादि दहेज में आए, इसलिए उनको वेतन भी धर्मकोट से ही मिलता था।'' महारानी दयाल, निश्छल और दैवी गुणोंवाली थीं।''18 लेकिन दुर्भाग्य से नई रानी से महाराजा का मन नहीं मिल पाया।''जब हरि सिंह की यह तीसरी शादी हुई थी तो वे राजकुमार थे और उनकी पत्नी राजकुमारी, लेकिन राजगद्दी मिलने पर, जब हरि सिंह महाराजा हो गए तो उनकी पत्नी भी महारानी बन गईं, लेकिन महाराजा का नई रानी से मन नहीं मिल पाया।
महाराजा किसी उत्सव या किसी अन्य विशेष अवसर पर उससे मिलने राजमहल में जाते थे। उन दिनों राजवंशों में परंपरा थी कि जब किसी राजकुमारी की शादी हो जाती थी तो उसकी अर्थी ही वहाँ से निकलती थी। धर्मकोट महारानी सारा समय मंडी मुबारक में ही रहीं। कभी कभार वह कार में बाहर घूमने के लिए निकलती थीं। वह आधा साल जम्मू और आधा कश्मीर में रहती थीं।''19 हरि सिंह के ही शब्दों में, न मुझे उसकी भाषा समझ में आती थी और न ही उसे मेरी। जब भी वह मिलती थी तो अपनी भाषा में केवल एक बात ही कहती थी कि मैं आपके सिर की मालिश कर हूँ?''20 लेकिन धर्मकोट महारानी से भी महाराजा को कोई संतान प्राप्त नहीं हुई। कैप्टन दीवान सिंह के ही शब्दों में, वह शुरू से ही बीमार रहती थी। वह संतान प्राप्ति के लिए भी अक्षम थी। हरि सिंह के सिवा वह किसी के भी सामने नहीं आती थी, यहाँ तक कि जब वह कार में भी बैठती थी तो परदे किए जाते थे।''21 धर्मपुर महारानी ने हरि सिंह को कोई संतान चाहे न दी हो, लेकिन इस शादी के दो साल के भीतर ही उन्हें राज गद्दी अवश्य मिल गई। इस राजगद्दी के रास्ते में भी उनकी ताई महारानी चडक ने अनेक रुकावटें खड़ी कर दी थीं।
प्रताप सिंह का देहांत
महाराजा प्रताप सिंह के अंतिम दिनों में ही महारानी चडक ने अपना ताना-बाना बुनना शरू कर दिया था कि हरि सिंह उत्तराधिकारी न बन सके, लेकिन प्रताप सिंह की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसलिए स्वाभाविक उत्तराधिकारी राजा हरि सिंह ही बन सकते थे। लेकिन प्रताप सिंह ने परोक्ष रूप से उन्हें इस काम के लिए प्रशिक्षित भी किया था, लेकिन महारानी चडक ने इसकी काट के लिए पुंछ के राजा के बेटे जगत देव सिंह को गोद ले लिया था। चडक की योजना थी कि प्रताप सिंह अपनी मौत से पहले उस दत्तक पत्र का राजतिलक कर दें। यद्यपि प्रताप सिंह महारानी चडक के आगे बोल पाने की हिम्मत तो नहीं रखते थे, लेकिन वे किसी भी हालत में पुंछ के राजा के इस बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाने को तैयार नहीं थे, पर महारानी चडक ने दरबार में अपने आदमी भर रखे थे। प्रताप सिंह बिस्तर पर थे। आगे की कहानी मलिका पुखराज के ही शब्दों में, जब महाराजा प्रताप सिंह मरणासन्न थे, उस समय हरि सिंह गुलमर्ग में थे। उन्हें जान-बूझकर प्रताप सिंह के स्वास्थ्य के बारे में कोई सूचना नहीं दी जा रही थी। अपने अंतिम दिनों में प्रताप सिंह (महारानी चडक के षड्यंत्रों को लेकर काफी चिंतित थे। उन्होंने सभी को कह रखा था कि हरि सिंह को तुरंत बुलाया जाए, लेकिन महारानी ने महाराजा के आस-पास के सभी लोगों को ईनाम-इकराम का लालच देकर अपने पक्ष में कर रखा था। इसलिए ऐसे सभी व्यक्ति महाराजा प्रताप सिंह को तो ये कहते रहते थे कि हरि सिंह रास्ते में हैं और किसी क्षण भी पहुँच सकते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी हरि सिंह को प्रताप सिंह का संदेश नहीं भिजवाया था। यदि महारानी चडक अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो जाती तो प्रताप सिंह के बाद उत्तराधिकारी को लेकर निश्चय ही एक विवाद खड़ा हो जाता। तब मामला निर्णय के लिए इंग्लैंड पहुँच जाता। महारानी चडक के नियंत्रण में पूरे हालात थे, इसलिए विवाद में वह यह तर्क दे देती कि महाराजा प्रताप सिंह की अंतिम इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। अंतिम इच्छा क्या थी, यह बतानेवाली भी महारानी चडक ही थी। महाराजा के आसपास के लोग तो पहले ही महारानी से मिले हुए थे। ऐसी स्थिति में यह संभव था कि वह ब्रिटिश अधिकारियों को घस देकर अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करवाने में सफल हो जाती, लेकिन महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह ने प्रयास किया कि महारानी अपनी चालों में सफल न हों। उन्होंने अपनी कार देकर अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को गुलमर्ग से हरि सिंह को लाने भेजा। इस प्रकार प्रताप सिंह की मृत्यु से पहले हरि सिंह उनसे मिलने में कामयाब हो गए और महाराजा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। इक्कीस तोपों की सलामी दी गई। सब जगह खबर फैल गई की मरने से पहले महाराजा ने अपने भतीजे के माथे पर तिलक लगा दिया था। शोभा सिंह के इन प्रयासों में जनक सिंह और करतार सिंह ने भी उनका साथ दिया था।