1965 युद्ध के नायक परमवीर कर्नल एबी तारापोरे, जिनकी पलटन ने 60 पाकिस्तानी टैंकों को किया था ध्वस्त #14thSepSpecial
   14-सितंबर-2020

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 - गिरिजांश गोपालन
 
भारतीय सेना ने 1965  में पाकिस्तान के साथ कठिन परिस्थितियों में भीषण युद्ध लड़ा था। युद्ध में देश की रक्षा करते हुये कई सैनिकों ने अपना बलिदान दिया था। उन्हीं शहीदों में एक नाम लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बर्जारी तारापोरे का भी है। जिन्होंने भारत-पकिस्तान के बीच 1965 में हुये युद्ध में अपनी कुशल नेतृत्व व बहादुरी का परिचय दिया था। इनके नेतृत्व में भारत सैन्य बल की एक छोटी टुकड़ी ने विरोधी पाकिस्तान के 60 टैंकों को बर्बाद कर दिया था। लेकिन युद्ध में दुश्मनों को पराजित करते हुये एबी तारापोरे भी शहीद हो गये थे। भारत सरकार ने उनकी वीरता व साहस के लिए मरणोपरांत भारतीय सेना के सर्वोच्च पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा था।
 
 
 
पूना हार्स रेजिमेंट
 

मुंबई में जन्मे अर्देशिर बर्जारी तारापोरे ने पढ़ाई के दौरान ही भारतीय सेना में भर्ती होने का फैसला कर लिया था। जिसके लिए उन्होंने 10 वीं के बाद आवेदन भी किया। परीक्षा के बाद उनका चयन भारतीय सेना में हो गया। गोलकुंडा के भारतीय सैन्य स्कूल से सैन्य प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उन्हें बैंगलोर भेज दिया गया। जिसके बाद 1942 में हैदराबाद राज्य बल में शामिल किया गया। उनको 7 वीं हैदराबाद इन्फेंटरी में नियुक्त किया गया था। लेकिन वह पैदल सेना से खुश नहीं थे वे बख्तरबंद रेजिमेंट में शामिल होना चाहते थे। इस रेजिमेंट में सेना के नौजवान टैंक द्वारा युद्ध करते हैं। वो बख्तरबंद रेजिमेंट में भर्ती होने का मौका तलाश रहे थे। एक बार जब राज्य बलों के कमांडर इन चीफ उनकी बटालियन का निरीक्षण करने आये थे। तब उन्होंने सैनिकों को ग्रेनेड फेंकने की ट्रेनिंग दी थी। इसके बाद उन्होंने बटालियन के एक सैनिक से ग्रेनेड फेंकने को कहा। उस जवान ने ग्रेनेड तो फेंका मगर उसका निशाना ठीक नहीं था। वह ग्रेनेड ऐसे स्थान पर गिरा जहां हादसा होने का खतरा था। लेकिन तारापोरे ने अपने साहस का परिचय देते हुये बड़े साहस के साथ कूद कर उस ग्रेनेड को सुरक्षित स्थान पर फेंक दिया।  हालांकि इस दौरान वो जख्मी भी हुये थे। जिसके बाद उन्हंस कुछ दिन इलाज के लिए आराम करना पड़ा था। जब वह ठीक हो गये तब कमांडर इन चीफ ने इनको बुलाकर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की थी। तभी तारापोरे ने उनसे बख्तरबंद रेजिमेंट में शामिल होने की इच्छा जताई। चीफ ने एबी तारापोरा की बात को स्वीकार करते हुये उन्हें पहली हैदराबाद इंपीरियल सर्विस लांसर्स’ में स्थानांतरित कर दिया था। आखिरकार 1951 में उन्हें भारतीय सेना में कमीशन मिली और पूना हार्स रेजिमेंट (17 हॉर्स) में उनका स्थानांतरण हुआ।
 
 
भारत-पाकिस्तान 1965 युद्ध
 
 
 
भारत-पाकिस्तान 1965 युद्ध से पहले तारापोरे भारतीय सैन्य बल में कमांडिंग ऑफिसर के पद पर पहुँच चुके थे। इस युद्ध के दौरान इन्हें पूना हार्स रेजिमेंट के नेतृत्व का कार्यभार सौंपा गया था। लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे 11 सितम्बर 1965 को सियालकोट सेक्टर में अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे। तभी उन्हें सियालकोट के फिल्लौरा पर हमला करने का आदेश मिला। उनका मकसद चाविंडा को जीतना था। आदेश मिलने के बाद तारापोरे अपने जवानों के साथ आगे बढ़ रहे थे, लेकिन तभी अचानक से दुश्मनों ने वजीराली क्षेत्र पर गोलाबारी शरू कर दी थी। उस वक्त पाकिस्तान के पास अमेरिकी पैटन टैंक मौजूद थे। ऐसे स्थिति में तारापोरे ने बड़ी बहादुरी और साहस का परिचय देते हुये वहां पर अपना कब्जा जमा लिया और 13 सितंबर को वजीराली पर भारतीय तिंरगा फहरा दिया। मगर उस दौरान वो घायल भी हो चुके थे। लेकिन अभी लक्ष्य चाविंड पर कब्जा करना बाकी था। 14 सितम्बर को एक कोपर्स अधिकारी ने कहा कि जब तक चाविंड को पीछे के रास्ते से नहीं घेर लिया जाता है तब तक शहर पर कब्ज़ा करना मुश्किल होगा। इसके बाद उन्होंने सितम्बर 14, 1965 को 17 हॉर्स और 8 गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ियों को जसोरण क्षेत्र में जमा होने को कहा, ताकि चाविंड को पीछे के रास्ते से घेरा जा सके। एक ओर पाकिस्तानी टैंक शक्तिशाली भी थे और उनकी संख्या भी ज्यादा थी, वहीं भारतीय सैनिकों की संख्या कम थी। लेकिन भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट करना जारी रखा। हालांकि मदद के लिए भारतीय सेना की तरफ से 43 टैंकों की टुकड़ियाँ ज़रूर आई। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। इधर घायल तारापोर अपने बचे-खुचे जवानों के साथ लड़ रहे थे। अपनी पुस्तक ‘लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर‘ में मेजर राजपाल सिंह ने लिखा है कि उन्होंने 9 टैंकों के साथ पाकिस्तानियों की 60 पैटन टैंकों को धूल में मिला दिया था। उन्हें पीछे हटने के आदेश मिला था लेकिन वो लड़ते रहे। दरअसल  अगर आदेश को मान कर अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोरे पीछे लौट चलते तो उनकी जान बच जाती। लेकिन उन्होंने पीछे हटने की बजाय लड़ना स्वीकार किया। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और लगातार युद्ध के मैदान में बड़ी जाबांजी के साथ लड़ते रहे। तारापोरे के नेतृत्व में युद्ध के दौरान भारतीय सेना पाकिस्तान में 35 किलोमीटर अंदर तक घुस चुकी थी। उन्होंने सेंचुरियन टैंकों के साथ पैटन का मुकाबला किया। जब उन्हें पीछे हटने का आदेश मिला, तब वो पाकिस्तान की जमीन पर थे और उन्होंने अपने लोगों से कहा कि पीछे हटने से हार होगी, इसीलिए युद्धस्थल नहीं छोड़ेंगे। 5 दिनों तक सियालकोट सेक्टर में युद्ध जारी रहा। वो अपने टैंक से दुश्मनों पर गोले बरसाते आगे बढ़ते जा रहे थे। युद्ध के समय ही उनके टैंक पर एक गोला आकर गिरा, जिससे वो वीरगति को प्राप्त हुये। उन्होंने पहले ही इच्छा जता दी थी कि अगर वो ज़िंदा नहीं बचते हैं तो उनका अंतिम संस्कार इसी युद्ध के मैदान में किया जाये। चाविंडा के युद्ध में देश की रक्षा करते हुये अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोरे समेत 64 भारतीय सैनिक शहीद हुये थे। तारापोरा के शहीद होने के बाद भी उनकी यूनिट दुश्मनों से मुकाबला करती रही क्योंकि वो उनके लिए प्रेरणा बन गये थे।
 
 

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1965, भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान की तस्वीर
 
 
कर्नल एबी तारापोरे का जीवन परिचय
 

लेफ़्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे का जन्म 18 अगस्त 1923 को मुंबई में हुआ था. इनका पूरा नाम अर्देशिर बर्जारी तारापोरे था। प्यार से लोग ‘आदि’ के नाम से पुकारते थे। वहीं इनके पूर्वज छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना का नेतृत्व किया था। शिवाजी ने उनकी बहादुरी व साहस को देखते हुये उनको भेंट स्वरूप 100 गांव दिये थे। उन्हीं गावों में एक मुख्य गांव का नाम तारापोर था। शायद इसी वजह से उनके नाम के साथ तारापोरे जुड़ गया था। उन्होंने छोटी सी ही उम्र में अपनी बहन  को एक गाय से बचाकर अपने साहस का परिचय दे दिया था। अर्देशिर तारापोरे पढ़ाई के मामले में एक साधारण छात्र थे। लेकिन खिलाड़ी वो अच्छे थे। स्कूल के दौरान एक अच्छे मुक्केबाज होने के साथ ही तैराकी, टेनिस व क्रिकेट भी खेलते थे। उनके माता-पिता ने उन्हें पूणे के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया था। जहां से उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा पास की थी।
 
 
 
 

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