लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल जीवन परिचय
अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर, 1950 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में हुआ था। अरुण खेत्रपाल के पिता मदन लाल खेत्रपाल भी सेना में ब्रिगेडियर थे। यही कारण था कि अरुण की प्रारंभिक स्कूली शिक्षा उन अलग-अलग जगहों के स्कूलों में हुई, जहाँ उनके पिता की नियुक्ति होती थी। इसके बाद अरुण को हिमाचल प्रदेश के एक बोर्डिंग स्कूल 'द लारेंस स्कूल, सनावर' में 5 वर्ष के लिए पढ़ाई करने के लिए भेज दिया गया था। अरुण खेत्रपाल जितने पढ़ाई-लिखाई में अच्छे थे, उतने ही अच्छे खेल के मैदान में भी थे। वे अपने स्कूल के एक बेहतर क्रिकेट खिलाड़ी थे।
एक फौजी के परिवार में जन्मे अरुण की नस-नस में परिवार से भारतीय सेना और उससे जुड़े गौरव के बीज विद्यमान थे, जिसने उन्हें बोर्डिंग स्कूल से पढाई करने के बाद सेना में भर्ती होने की ओर आकर्षित किया था। 1848 में उनके परदादा सिख सेना में कार्यरत थे और उन्होंने चिलियाँवाला का मोर्चा संभालते हुए ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई भी लड़ी थी। अरुण के दादा ने 1917-1919 में प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया था।
1967 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में अरुण खेत्रपाल का चयन
अरुण खेत्रपाल के पिता मदन लाल खेत्रपाल ब्रिगेडियर तो थे ही, साथ ही उन्हें अतिविशिष्ट सेवा मेडल से भी सम्मानित किया गया था। इसी कारण सैन्य परिवार का संस्कार उनके रक्त में बह रहा था। जून 1967 में अरुण खेत्रपाल का चयन राष्ट्रीय रक्षा अकादमी देहरादून में हो गया। जहाँ प्रशिक्षण के दौरान वे स्क्वॉड्रन कैडेट के रूप में चुने गये थे। बाद में वे भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल हुए थे। अरुण की कार्य निष्ठा और उच्च आचरण को देखते हुए उन्हें 13 जून, 1971 को 17 पूना हार्स में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया था।
अरुण खेत्रपाल को कहा जाता है 'बसंतर के युद्ध' का योद्धा
सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को 'बसंतर के युद्ध' का योद्धा भी कहा जाता है। अरुण खेत्रपाल एक ऐसे योद्धा थें जिसने युद्ध के मैदान में पाकिस्तान के 10 टैंक्स को अकेले ध्वस्त किया था। 5 से 16 दिसंबर 1971 तक चली इस जंग में अरुण ने जम्मू -कश्मीैर के बसंतर में मोर्चा संभाला था। बसंतर की लड़ाई 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पश्चिमी सेक्टर में लड़ी गई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। उस लड़ाई में अरुण खेत्रपाल ने जिस जज्बे का प्रदर्शन किया उसने ना सिर्फ पाकिस्तानी सेना को आगे बढ़ने से रोका था, बल्कि पाकिस्तानी सेना के जवानों का मनोबल इतना गिर गया कि आगे बढ़ने से पहले पाकिस्तानी सैनिकों ने दूसरी बटालियन की मदद मांगी थी।
घायल होने के बावजूद दुश्मनों से लिया लोहा
हालांकि युद्ध के दौरान अरुण बुरी तरह से घायल हो गये थे और उनके टैंक में आग लग गई थी। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने टैंक नहीं छोड़ा था। उन्होंने दुश्मन का जो आखिरी टैंक बर्बाद किया था, वो उनकी पोजिशन से 100 मीटर की दूरी पर था। टैंग में आग लगने पर उनके कमांडर ने उन्हें वापस लौटने का ऑर्डर दिया था। लेकिन लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने अपना रेडिया सेट ऑफ कर दिया था। रेडियो पर अरुण के आखिरी शब्द थे कि ''सर, मेरी गन अभी फायर कर रही है। जब तक ये काम करती रहेगी, मैं फायर करता रहूंगा''।
तभी अचानक सीटी की आवाज़ करता हुआ एक गोला खेत्रपाल के टैंक के कपोला को भेदता हुआ निकल जाता है। ख़ून से लथपथ अरुण खेत्रपाल अपने गनर नत्थू सिंह से आखिरी शब्द में सिर्फ यह कह पाते हैं कि 'मैं बाहर नहीं आ पांऊगा'। लेकिन नत्थू अरुण को जलते टैंक से बाहर निकालने की पूरी कोशिश किया था। तभी अरुण का शरीर नीचे की तरफ़ लुढ़कता जाता है और पेट का ज़ख्म इतना गहरा होता है कि अरुण की आंतें बाहर निकल आती हैं। अरुण के शव और उनके टैंक फमगुस्ता को पाकिस्तान ने कब्जे में ले लिया था, लेकिन बाद में इंडियन आर्मी को लौटा दिया गया था।
मरणोपरांत सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित
जिसके बाद उनका अंतिम संस्कार सांबा जिले में हुआ था और अस्थियां परिवार को भेजी गई थी। बलिदानी सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की वीरता व अदम्य साहस के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। युद्ध के मैदान में बलिदान होने के बाद आज भी सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का नाम अमर है। NDA में जहां उनके नाम पर परेड ग्राउंड है तो इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए) में उनके नाम खेत्रपाल ऑडीटोरियम बना हुआ है। इसके अलावा उनके टैंक फमगुस्ताभ को भी अहमदनगर में आर्मर्ड कोर सेंटर एंड स्कू ल में संरक्षित करके रखा गया है।