हमारे देश के असंख्य वीर जवानों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश की एकता, अखंडता व देश के गौरव को बढ़ाया है। देश की एकता व अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले देश के दुश्मनों को भी युद्ध के मैदान में धूल चटाने का काम किया है। माँ भारती के इन वीर सपूतों की लम्बी फेहरिस्त में एक नाम अमर बलिदानी कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का भी आता है। जिन्होंने विदेशी धरती पर दक्षिणी अफ्रीका के कांगो शहर में भारत द्वारा भेजी गई शांति सेना का नेतृत्व करते हुए न सिर्फ 40 विद्रोहियों को मार गिराया बल्कि अपने प्राणों की आहुति देते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए और ऐसा कर के भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता होने का गौरव प्राप्त किया।
कैप्टन गुरबचन सिंह परिचय
परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का जन्म 29 नवंबर 1935 को अविभाजित भारत की तहसील शकरगढ़ (जोकि अब पाकिस्तान) के गांव जमवाल में हुआ था। बैंगलोर के किग जार्ज स्कूल से 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे 1952 में NDA में प्रवेश पाने वाले पहले कैडेट बने। इसके बाद 9 जून 1956 को NDA से पासिंग आउट के बाद भारतीय सेना की 3/1 गोरखा राइफल्स में भर्ती होकर देश सेवा में जुट गए।
जून 1960
दरअसल जून 1960 में कॉन्गो गणराज्य (Republic of Congo) बेल्जियम के शासन से आजाद हुआ था। लेकिन जुलाई के महीने में कॉन्गोलीज सेना में विद्रोह हो गया। देखते ही देखते यह विद्रोह गोरों और कालों के बीच हिंसक होने लगा। बेल्जियम ने गोरे लोगों को बचाने के लिए फौज भेजी इसके अलावा 2 इलाके विद्रोही फौज के कब्जे में थे। पहला काटंगा (Katanga) और दूसरा साइथ कसाई (South Kasai)। बेल्जियम ने इस विद्रोह को दबा दिया था लेकिन कॉन्गो की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से 14 जुलाई 1960 को मदद मांगी। संयुक्तर राष्ट्र ने शांति मिशन की सेनाएं भेज दीं। इसमें कई देशों की सेनाओं के साथ भारतीय सेना भी शामिल थीं।
ऑपरेशन उनोकट
मार्च से जून 1961 में इस शांति मिशन में भारत की ओर से ब्रिगेडियर केएएस राजा के नेतृत्व में 99वें इन्फैन्ट्री ब्रिगेड के 3000 जवानों के साथ कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया भी शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र ने कई बार प्रयास किया कि कॉन्गो की सरकार और काटंगा के विद्रोहियों के बीच बातचीत से समस्या का हल निकल सके किन्तु ये प्र्यस्सफल नहीं हुआ और झड़प बढती ही जा रही थी। फिर संयुक्त राष्ट्र ने शांति सेना को बल प्रयोग करने का आदेश दे दिया गया। इस बीच शांति सेना के साथ गए भारतीय फौजी 1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को काटंगा विद्रोहियों ने मार डाला। हालात को बिगड़ता देख संयुक्त राष्ट्र ने सख्ती से विद्रोहियों से निपटने का आदेश दे दिया। फिर शुरू हुआ ऑपरेशन उनोकट।
40 विद्रोहियों को उतारा मौत के घाट
कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया के कुशल लीडरशिप क्वालिटी को देखते हुए मार्च 1961 में उन्हें भारतीय शांति सेना का नेतृत्व करने के लिए दक्षिणी अफ्रीका भेजा गया। 5 दिसंबर 1961 को 1 गोरखा राइफल्स की तीसरी बटालियन को रोड ब्लॉक्स हटाने का काम सौंपा गया जिसे विद्रोहियों ने ब्लॉक कर कर रखा था। लिहाजा रोड ब्लॉक होने के कारण एलिजाबेथविले एयरपोर्ट से आना-जाना नहीं हो पा रहा था। रोड ब्लॉक्स के आस पास 150 काटंगा विद्रोहियों ने घात लगा रखी थी कि जैसे ही कोई रोड को खाली कराने का प्रयास करेगा विद्रोही उसे निशाना बना लेंगे। दोपहर में रोड ब्लॉक्स को हटाने की जिम्मेदारी दी गई।
साथ ही कहा गया कि विद्रोहियों का सफाया करो। कैप्टन सालारिया और उनके साथी जवान मौके पर पहुंच गए। इस बीच विद्रोहियों और कैप्टन सालारिया के साथ जमकर मुकाबला हुआ। इस दौरान कैप्टन सालारिया के साथ महज 16 सैनिकों की टीम थी और विद्रोहियों की संख्या 100 से ज्यादा। इस मुकाबले में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया ने 40 विद्रोहियों को मौके पर ही मौत के घाट उतार दिया था। बाकी बचे विद्रोही मौत का ये तांडव देख वहां से भाग खड़े हुए।
परमवीर चक्र से सम्मानित
हालांकि इस बीच कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया भी युद्ध में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। आखिरकार विदेशी धरती पर बहादुरी का परचम लहराते हुए कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया वीरगति को प्राप्त हो गए। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया के शौर्य, पराक्रम और बहादुरी का सम्मान करते हुए देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णण ने उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया।
आज कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की जन्म जयंती पर कोटिशः नमन