आज 23 दिसम्बर महत्वपूर्ण तिथि है क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष में रत हमारे पूर्वजों ने दिल्ली की चांदनी चौक में तत्कालीन वायसराय हार्डिंग के ऊपर जो बम फेंका था, उस बम की धमक स्वतंत्रता की आवाज के रूप में समस्त विश्व में सुनाई पड़ी थी। चार लोग मुख्य भूमिका में थे – मास्टर अमीरचन्द्र, बसंत कुमार विश्वास, बाल मुकुंद और अवधबिहारी और सबके प्रेरणा स्रोत - रास बिहारी बोस।
दरअसल हुआ ये कि बंगाल में राष्ट्रवादियों की बढ़ रही गतिविधियों से भयभीत होकर अंग्रेज प्रशासन ने कलकत्ता की जगह पर दिल्ली को राजधानी बनाना निश्चित किया। इसी निमित्त दिसंबर 1911 में दिल्ली में ब्रिटिश किंग का दरबार हुआ। 1 अक्टूबर 1912 को ‘दिल्ली टेरीटरी’ निश्चित की गयी। जिसमें शाहजहानाबाद के अलावा उसके आस पास के 100 गाँवो को अधिग्रहित किया गया। इसके कमिश्नर बनाये गए विलियम हेली। कमिश्नर बनाये जाने के बाद हेली ने निश्चित किया कि 23 दिसबर 1912 को वायसराय हार्डिंग ii दिल्ली में प्रवेश करेंगे। इस कार्यक्रम को ‘दिल्ली एंट्री’ के नाम से जाना जाता है।
रासबिहारी बोस पंजाब में लाला हरदयाल से संपर्क करते है। हरदयाल जब 1908 में विदेश चले गये तो पंजाब में क्रन्तिकारी भावना के प्रसार की जिम्मेदारी अपने साथी अमीरचन्द्र को दे गए। इसी प्रकार अवध बिहारी को तत्कालीन यूनाइटेड प्रोविंस और पंजाब के क्रांतिकारी सदस्यों से समन्यव की जिम्मेदारी प्रदान की गई। बोस को संस्थान में रहते हुए उन्हें देशभर में घूमने का मौका मिला तब और इसका इस्तेमाल उन्होंने गुप्त रूप से उपनिवेश विरोधी क्रांतिकारी नेटवर्क बनाने के लिए किया। सालों तक अंग्रेजों को उन पर शक नहीं हुआ। रासबिहारी बोस 1911 में जबलपुर पहुंचे और उन्होंने यहां क्रांतिकारी चिदंबरम से मुलाकात की और उन्हें अपनी योजना के बारे में बताया। यह योजना थी 1912 में ब्रिटिश सरकार के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर हमले की।
नई दिल्ली में ब्रिटिश सरकार के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर हुए आत्मघाती हमले की रिहर्सल जबलपुर शहर की मदन महल पहाड़ियों में की गई थी। दिल्ली में जार्ज पंचम के दिसंबर को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी। लॉर्ड हार्डिंग रत्नजड़ित पोशाक पहनकर मोती नाम के हाथी पर सवार था। उनके ठीक आगे उनकी पत्नी, लेडी हार्डिंग बैठी थी। हाथी चलाने वाले एक महावत के अतिरिक्त उस हाथी पर सबसे पीछे लार्ड हार्डिंग का एक अंगरक्षक भी सवार था। इस यात्रा को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से होते हुए लाल किले तक आना था ।
लार्ड हार्डिंग
इस शोभायात्रा की सुरक्षा में अंग्रेज़ों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सादे कपड़ों में CID के कई आदमी यात्रा से हफ्तों पहले ही पूरी दिल्ली में फ़ैल गए थे। यात्रा वाले दिन भी सुरक्षा इंतज़ाम सख्त थे। 2 सुपरिंटेंडेंट, 2 डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट, 5 सार्जेंट और 75 हेड कांस्टेबल और 34 माउंटेड कांस्टेबल सुरक्षा पंक्ति में लगे थे। इनके अतिरिक्त इलेवेंथ लैंसर्स की पूरी कम्पनी को भी तैनात किया गया था। बोस की योजना इसी शोभायात्रा में हार्डिंग पर बम फेंकने की थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास को बम फेंकने के लिए चुना गया, जो देहरादून में बोस के नौकर थे।
11 बजकर 45 मिनट में जब यह काफिला चाँदनी चौक में पराठे वाली गली में कटरा धुलिया नामक बिल्डिंग के सामने पहुंचा, तो वहां ये दृश्य देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी। कई महिलाएं इसी चौक पर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की दुसरे मंजिल की छत से यह दृश्य देख रही थी। बसन्त कुमार विश्वास ने भी एक महिला का वेश धारण किया, और रासबिहारी बोस की पत्नी के रूप में इन्हीं महिलाओं की भीड़ में शामिल हो गए। पहले तो वहां उपस्थित महिलाएं उनसे बात करने की कोशिश करने लगी और उनसे उनका नाम पूछा तो 17 वर्षीय इस महिला ने अपना नाम लीलावती बताया। उन्होंने अपने आस-पास बैठी महिलाओं का ध्यान भटकाने के लिए लेडी हार्डिंग के मोतियों के हार की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करवाया और मौक़ा पाते ही वायसराय पर बम फेंक दिया। बम फटते ही वहां ज़ोरदार धमाका हुआ, और पूरा इलाका धुंए से भर गया। वायसराय बेहोश होकर एक तरफ को जा गिरे।

बम के छर्रे लगने की वजह से लॉर्ड हार्डिंग की पीठ, पैर और सिर पर काफी चोटें आईं थीं। उनके कंधों पर भी मांस फट गया था। लेकिन, घायल होने के बावजूद, वायसराय जीवित बच गए थे, हालांकि इस हमले में उनका महावत मारा गया था। लेडी हार्डिंग भी सुरक्षित थी। हाथी इतना डर गया की वह बैठ नहीं रहा था। लोगों ने दुकानों से सामान एकत्र कर हार्डिंग को हाथी से उतारा। उसे जमीं में लिटा दिया गया। घबराकर भीड़ तितर-बितर हो गई, और इसी का फायदा उठाकर विश्वास वहां से बच निकले। पुलिस ने चांदनी चोंक इलाके की घेराबन्दी कर कई लोगों के घरों की तलाशी भी ली, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। ब्रिटिश सरकार ने 1 लाख रूपये का इनाम बम मारने वालों की शिनाख्त करने वालों के लिए रखा, पर 15 महीने तक कोई सुराख़ नहीं मिला।
बिस्वास पुलिस से बचकर बंगाल पहुँच गए थे। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गई और वह बचने के लिये रातों-रात ट्रेन से देहरादून खिसक लिये और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलाई, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ। 26 फ़रवरी 1914 को अपने पैतृक गाँव परगाछा में अपने पिता की अंत्येष्टि करने आए बसंत को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद कलकत्ता के राजा बाजार इलाके में एक घर की तलाशी लेते हुए ब्रिटिश अधिकारियों को अन्य क्रांतिकारियों से संबंधित कुछ सुराग हाथ लगे। इन्हीं सुरागों के आधार पर मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और भाई बालमुकुंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इस मामले में कुल 13 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। इन अभियुक्तों में से एक, दीनानाथ सरकारी गवाह बन गया था।
फांसी में बदली काला पानी की सजा
दीनानाथ और सुल्तान चन्द्र के सरकारी गवाह बन जाने के कारण 16 मार्च 1914 को मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और बालमुकुंद गुप्त और 7 अन्य लोगों पर दिल्ली की न्यायलय में देशद्रोह और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मुकदमा दायर किया गया। यह भी पाया गया कि 17 मई 1913 को लाहौर में हुए एक अन्य बम हमला भी बसंत कुमार बिस्वास और उसके इन साथियों ने ही किया था। "दिल्ली षड्यंत्र केस" या "दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र केस" नामक इस मुकदमे की सुनवाई 21 मई 1914 को शुरू होकर 1 सितम्बर 1914 तक चली थी। 5 अक्टूबर 1914 को न्यायालय ने इस मुक़दमे का फैसला सुनाया; सभी अभियुक्तों को काला पानी में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। फैसले से नाखुश ब्रिटिश सरकार ने लाहौर हाईकोर्ट में अपील की और अंततः पंजाब के गवर्नर, सर माइकल ओ'ड्वायर के हस्तक्षेप के बाद इन सभी की सजाओं को फांसी में बदल दिया गया था।

8 मई 1915 को दिल्ली में दिल्ली गेट से आगे स्थित वर्तमान खूनी दरवाजे के पास स्थित एक जेल में बाल मुकुंद, अवध बिहारी और मास्टर अमीर चंद को फांसी पर लटका दिया गया। अवधबिहारी से जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह भारत में ब्रिटिश हुकूमत का अंत चाहते है। इसी प्रकार अमीरचंद्र ने कहा कि अगर समस्त देश सिर्फ थूंक दे तो ब्रिटिश हुकूमत बह जाएँ । 11 मई 1915 को अम्बाला की सेंट्रल जेल में बसंत कुमार विश्वास को भी फांसी दे दी गई। रास बिहारी बोस, हालाँकि, पुलिस गिरफ़्तारी से बचते-बचाते घूमते रहे, और 1916 में जापान पहुँचने में सफल हो गए थे।