20 अक्टूबर 1962 भारत पर चीन के हमले से लगभग 12 वर्ष पहले 7 नवंबर, 1950 को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को एक पत्र लिखा। पत्र के जरिये पटेल ने नेहरु को सचेत करने की कोशिश की थी। पटेल ने अपने पत्र में लिखा “चीन सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों के बल पर हमें बहकाने की कोशिश की है......हालाँकि हम खुद को चीन का मित्र मानते हैं, लेकिन चीनी हमें अपना मित्र नहीं मानते।” लेकिन नेहरु पटेल की बातों को कितनी गहराई से लेते थे ये तो जगजाहिर है। लिहाजा इसका नतीजा यह हुआ कि भारत को कुल 42,735 वर्ग किलोमीटर का इलाका चीन के हाथों गंवाना पड़ा।
इसके अलावा 1962 की युद्ध में अरुणांचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) में तैनात मेजर जनरल अशोक कल्याण वर्मा (Ashok Kalyan Verma) .अपनी किताब "Rivers of Silence" में लिखते हैं कि ‘’युद्ध से बहुत पहले आर्मी चीफ़ जनरल करियप्पा ने भी नेहरु से तिब्बत पर चीन के हमले के बाद NEFA (North Eastern Frontier Agency) और मैकमोहन बॉर्डर (McMohan Line )पर होने वाले असर को लेकर बातचीत की थी। जनरल करियप्पा (1949-1953 तक कमांडर इन चीफ) ने नेहरु को चीन के खिलाफ महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए भी कहा था’’। लेकिन नेहरु चीन के साथ मित्रता स्थापित करने में इतने मशगुल थे कि उन्होंने इन सभी चेतावनियों को दरकिनार कर सिर्फ चीन पर विश्वाsस जताना उचित समझा।
पंचशील समझौता
सब कुछ जानते हुए भी चीन से बेहतर रिश्ते बनाए रखने के लिए जवाहरलाल नेहरु (Nehru Big Mistake) ने चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किया। 'पंचशील' (Panchsheel Principles) शब्द का शाब्दिक अर्थ है 5 सिद्धांत। आपसी संबंधों और व्यापार को लेकर 29 अप्रैल 1954 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन-लाई ने तिब्बत के बीच पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किया। पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने से पहले 31 दिसंबर 1953 और 29 अप्रैल 1954 को दोनों नेताओं के बीच बैठकें हुई। बैठकों के बाद दोनों देशों के बीच सहमति बनी और समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
पंचशील समझौते के मुख्य बिंदु
1. एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिए परस्पर सम्मान
2. दोनों देश एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे
3. एक दूसरे के मामले में कोई पारस्परिक हस्तक्षेप नहीं होगा
4. समानता और सहयोग के साथ रहेंगे
5.शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व होगा
भारत चीन युद्ध की शुरुआत
आखिरकार चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद चीन और भारत में रिश्ते कुछ दिनों तक सही चले। लेकिन कुछ वर्षों बाद जब अक्साई चिन से आगे बढ़ते हुए चीन ने अपनी चौकियां और सड़कों का निर्माण तेज कर दिया तब 1959 में जवाहरलाल नेहरु को चीन की असलियत का पता चला। चीन की धोखेबाजी को जानने के बाद नेहरु ने फॉरवर्ड पालिसी लागू की। लेकिन जल्द ही वो दिन आया जब चीन ने भारत के साथ विश्वासघात करते हुए लद्दाख और उत्तर पूर्व क्षेत्रों पर हमला कर दिया। नेहरु के इस विश्वास का खामियाजा देश और देश की सेना को 1962 भारत चीन युद्ध के रूप में भुगतना पड़ा। युद्ध के दौरान देश की सेना इस युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। सैनिकों के पास हथियारों के अलावा ठंड से बचने के लिए उचित गर्म कपडे, बर्फ वाले जूते जैसी अनेक वस्तुओं की कमी थी। लेकिन विपरीत परिस्थतियों के बावजूद चीन के 80 हजार सैनिकों के सामने हमारे देश के महज 20 हजार वीर जवानों ने बहादुरी से युद्ध लड़ा।
1962 युद्ध के दौरान लद्दाख सीमा पर तैनात भारतीय सेना
हालाँकि इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि चीन के साथ हुए इस युद्ध में देश को हार का सामना करना पड़ा। आंकड़ों के मुताबिक़ इस युद्ध में लगभग 1383 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए 3 हजार 968 सैनिक चीन के हाथों युद्धबंदी बना लिए गए और करीब 1696 सैनिकों का कुछ पता नहीं लग सका। यानि कुल मिलाकर भारत की यह सबसे बड़ी हार थी। इस हार से लद्दाख का 37,544 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा चीन के कब्जे में चला गया। साल 1963 में पाकिस्तान ने 5,180 वर्ग किलोमीटर का इलाका भी गैर-कानूनी रूप से चीन को दे दिया। इस तरह अक्साई चिन, मनसार और शाक्सगाम घाटी का कुल 42,735 वर्ग किलोमीटर का इलाका COTL कहलाता है।
पैंगोंग त्सो के दक्षिणी तट पर भारतीय सेना और चीनी सेना आमने सामने
इतिहास के पन्नों को पलटें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि 1962 का युद्ध तो महज रणभूमि में लड़ा गया, लेकिन चीन ने इस युद्ध की पटकथा लिखनी 1950 से ही शुरू कर दी थी। 1962 के युद्ध से पहले ही चीन ने अपनी विस्तारवादी नीतियों को बढाते हुए उत्तरी पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ की शुरुआत कर दी थी। लेकिन उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु हिंदी-चीनी भाई भाई का नारा बुलंद करने में लगे थे। इसके बाद चीन लगातार कई दफा अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देता रहा लेकिन चीन के इस विस्तारवादी सोच में नेहरू सरकार दिलचस्पी दिखाने से बचती रही। यहाँ ये भी कहा जा सकता है कि राजनीति के अपने अंतिम दिनों में नेहरु की ये प्रबल इच्छा हो कि वे विश्व शान्ति के संदेश वाहक बनकर UN के महासचिव बन जाए। हालाँकि ये भी संभव नहीं होता क्योंकि जो इंसान 1953 में भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनाए जाने की पेशकश को चीन के लिए ठुकरा दिया वो और क्या ही महासचिव क्या ही बनते।
26 अक्टूबर 1954 को बीजिंग में माओत्से तुंग और नेहरू
अक्साई चिन पर चीन के अवैध कब्जे का इतिहास
लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर भारत में अरुणाचल प्रदेश तक 3488 किलोमीटर तक फैली भारत-तिब्बत सीमा है। जब तक तिब्बत स्वतंत्र देश था तब तक इस सीमा पर कोई विवाद नहीं था। लेकिन वर्ष 1950 में चीन ने जैसे ही तिब्बत पर अपना अवैध रूप से क़ब्ज़ा किया तो रातों रात भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सीमा में बदल गई। चीन ने 1950 में नेहरूवादी सोच का लाभ उठाकर भारत के अक्साई चिन क्षेत्र के 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर महज क़ब्ज़ा ही नहीं किया बल्कि उस क्षेत्र में सिकियांग को तिब्बत से जोड़ने वाली 200 किमी लंबी सड़क भी बना ली थी। हालाँकि इस बीच विडंबना देखिए कि चीन के इस विस्तारवादी सोच की भनक चीन में भारतीय राजदूत कावलम माधव पणिक्कर को भी नहीं लगी। बहरहाल इस बीच तक तत्कालीन भारत सरकार ने चीन का कोई विरोध नहीं किया और चीन इसके बदले अपनी विस्तारवादी रवैये को विस्तार देते हुए भारतीय सीमा के भीतर घुसपैठ बनाता रहा। लद्दाख सीमा के पास चीनी सेना ने बड़ी संख्या में अपनी चौकियां भी बनानी शुरू कर दी।
चीन का हमला और 42,735 वर्ग किमी की जमीन पर कब्ज़ा
बहरहाल इन सब के बीच चीन के साथ भारत के रिश्ते तब खराब होने लगे, जब तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद 1959 में तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा ने भारत में शरण ले ली। हालांकि, इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पंचशील समझौते के माध्यम से दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने का प्रयास किया। लेकिन इस प्रयास में वे सफल नहीं हुए और दोनों देशों के बीच पंचशील समझौता टूट गया और फिर पहले से तैयार बैठी चीनी सेना ने 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। चीन ने पूर्वी और पश्चिमी सेक्टर पर हमला बोल दिया। हालाँकि इस युद्ध के लिए न तो भारत की सेना तैयार थी और न ही यहां की सरकार। इसके परिणामस्वरूप चीन ने भारतीय भूमि के 42 हजार 735 वर्ग किलोमीटर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। क्षेत्रफल के हिसाब देखें तो यह स्विट्जरलैंड के कुल क्षेत्र जितना है। यानि उस वक्त की तत्कालीन सरकार की नीतियों के कारण हमारे देश का एक बड़ा भूभाग आज भी चीन के अवैध कब्जे में है। 21 नवंबर 1962 को ठीक एक महीने बाद चीन ने सीजफायर का ऐलान कर के युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी।
जवाहरलाल नेहरू और वीके कृष्ण मेनन
चीन से हार की एक और मुख्य वजह !
1962 में भारत-चीन के बीच हुए युद्ध में हार की एक वजह तब के तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्णन मेनन भी रहे। चीन के प्रति कृष्णन मेनन की उदारता के कारण भी भारत चीन से युद्ध हार गया था। दरअसल मेनन का मानना था कि चीन साम्राज्यवादी नहीं है। न ही उसकी कोई सीमा विस्तार की इच्छा है। उस समय जब वह रक्षा मंत्री थे, तब जनरल एस. थिमैय्या ने उनसे कहा था कि पाकिस्तान के बजाय चीन के बॉर्डर पर सैनिकों की संख्या ज्यादा रखी जाए लेकिन मेनन नहीं माने और तर्क दिया कि चीन से हमें कोई खतरा नहीं है। जिस वक्त चीन ने भारत पर हमला किया उस वक्त कृष्ण मेनन लंदन में थे। कल्पना कीजिए कि देश में युद्ध छिड़ा है और देश का रक्षामंत्री लंदन में है। युद्ध के दौरान कृष्ण मेनन ने 'NAVY' और वायुसेना को आगे बढ़ने का आदेश ही नहीं दिया। इस फैसले को उन्होंने यह कहते हुए टाल दिया कि अगर नेवी और वायुसेना इसमें आगे आती है तो यह युद्ध और लम्बा खींच सकता है। लेकिन अगर उस दौरान नेवी और वायुसेना को इस युद्ध में उतारा जाता तो आज इस जंग की रूप रेखा कुछ और ही होती। क्योंकि चीन के वायुसेना से कहीं अधिक मजबूत हमारे देश की वायुसेना और नेवी थी।
युद्ध के बाद संसद में चर्चा के दौरान नेहरु
युद्ध में हार के बाद संसद में तीखी बहस
1962 के युद्ध को लेकर संसद में भी काफी बहस हुई। चूँकि युद्ध में अक्साई चिन चीन के कब्जे में चला गया था, देश को एक बहुत बड़ा भूभाग दुश्मन के हाथों खोना पड़ा था, लिहाजा नेहरु सरकार के खिलाफ विपक्ष का हमलावर होना लाजमी था। युद्ध समाप्ति के बाद का ऐसा ही एक वाक्या संसद से जुड़ा है। दरअसल चीन से मिली हार और अक्साई चिन को चीन के हाथों गंवाने के बाद नेहरु ने संसद में बयान दिया था कि ‘’अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है’’। लेकिन नेहरू को उम्मीद नहीं थी कि उनके विरोध में सबसे बड़ा चेहरा उनके अपने मंत्रिमंडल का होगा। नेहरु मंत्रिमंडल का चेहरा रहे महावीर त्यागी ने तब जवाहर लाल नेहरू को संसद में अपना गंजा सिर दिखा कर कहा, - ‘इस पर भी बाल नहीं उगते, क्या आप इसे भी दुश्मन को सौंप देंगे?' हालाँकि नेहरु इस बात पर कोई जवाब दिए बिना इस मामले को यूँही शांत रखना पसंद किया।
चीन से युद्ध में मिली हार के लिए नेहरु जिम्मेदार ?
हार के कारणों को जानने के लिए भारत सरकार ने युद्ध के तत्काल बाद ले. जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और इंडियन मिलिट्री एकेडमी के तत्कालीन कमानडेंट ब्रिगेडियर पी एस भगत के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी। दोनों सैन्य अधिकारियो द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट को भारत सरकार अभी भी इसे गुप्त रिपोर्ट मानती है। हालाँकि इस बीच हमेशा से यह दावा किया जाता रहा कि दोनों ही अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में हार के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था। इस रिपोर्ट के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी पढ़ा था और कहते हैं कि रिपोर्ट पढ़ेने के बाद वे भी आश्चर्य से भर गए थे।
संसद में भाजपा सांसद तापिर गाओ द्वारा हेंडरसन ब्रूक्स और भगत की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग
पूर्व एयर मार्शल डेंजिल कीलोर
1962 के युद्ध को लेकर पूर्व एयर मार्शल डेंजिल कीलोर का बयान भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने अपना यह बयान ‘वाइल्डफिल्म्स इंडिया’ के साथ एक साक्षात्कार के दौरान दिया था। इस दौरान उन्होंने बताया कि आखिर उस समय भारत के हार की मुख्य वजह क्या थी? पूर्व एयर मार्शल डेंजिल कीलोर इंटरव्यू में कहते हैं कि 1962 का युद्ध भारत केवल पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कारण हारा। उन्होंने उस समय एयरफोर्स का समर्थन नहीं किया। न ही सेना के जवानों को गर्म कपड़े उपलब्ध कराए। भारत यदि हारा तो उसकी वजह नेहरू थे। Sino-Indian War 1962
ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नैवेल मैक्सवेल का दावा
ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नैवेल मैक्सवेल ने भी अपनी किताब ‘इंडियास वॉर विद इंडिया’ में इस बात का उल्लेख किया कि जवाहरलाल नेहरू की फॉरवर्ड पालिसी की वजह से चीन आहत हुआ और उसने युद्ध की शुरुआत कर दी। नैवेल मैक्सवेल ने 1959-1967 के दौरान 'द टाइम्स ऑफ लंदन' के लिए दक्षिण एशिया को कवर किया करते थे। वे उन कुछ लोगों में से एक थे जिन्होंने 1962 भारत-चीन युद्ध पर लिखी गई 'हेंडरसन-ब्रूक्स रिपोर्ट' देखी थी। जिसे आज भी एक गुप्त आंतरिक रिपोर्ट के तौर पर जाना जाता है। कहते हैं कि मैक्सवेल को इस रिपोर्ट की कुछ प्रतियाँ हाथ लग गईं और उन्होंने उसी के आधार पर ‘इंडियास वॉर विद इंडिया’ नाम से किताब लिख डाली।
चीन से दोस्ती के लिए ठकराई UN की सदस्यता
नेहरु सरकार के चीन प्रेम को लेकर यह भी तर्क दिया जाता है कि वर्ष 1953 में भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनाए जाने की पेशकश हुई थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने इसे अस्वीकार कर यह मौका चीन को दे दिया। इस बात का उल्लेख कई किताबों में किया गया है। यहाँ तक कि कांग्रेस के दिग्गज नेता शशि थरूर ने भी अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ नेहरु- दि इनवेंशन आफ इंडिया’ में भी इस बात का उल्लेख किया है।
शशि थरूर लिखते हैं कि जिन भारतीय राजनयिकों ने उस दौर की विदेश मंत्रालय की फाइलों को देखा है,वे इस बात को मानेंगे कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा कि भारत की जगह चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले लिया जाए। तब तक ताइवान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य था।
इसके अलावा भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुत्र सर्वपल्ली गोपाल ने भी अपनी किताब 'सेलेक्टड वर्क्स आफ नेहरू' में लिखा है कि ''जवाहरलाल नेहरु ने सोवियत संघ की भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के छठे स्थायी सदस्य के रूप में प्रस्तावित करने की पेशकश को खारिज करते हुए कहा था कि भारत के स्थान पर चीन को जगह मिलनी चाहिए।“ (एस. गोपाल-सेलेक्टड वर्क्स आफ नेहरू, खंड 11, पृष्ठ 248)