इतिहास के पन्नों में 27 अक्टूबर : महान सिख योद्धा बंदा सिंह बहादुर की वीरगाथा, जिन्होंने अपनी अंतिम सांस तक मुगलों के छुड़ा दिए पसीने

    27-अक्तूबर-2023
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great Sikh warrior Banda Singh Bahadur
 
 
भारत का इतिहास वीरता, बलिदान और योद्धाओं का इतिहास रहा है। लेकिन इसे विडंबना ही कहेंगे कि इतिहास में हमें सिर्फ मुगलों के गुणगान और अंग्रेजों के गुलामी का इतिहास ही पढाया या बताया गया। आज की कड़ी में हम एक ऐसे ही महायोद्धा की चर्चा करेंगे जिसने मुगलों को अपनी वीरता और बहादुरी से घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। भारत के इस महावीर योद्धा का नाम है बंदा सिंह बहादुर है। 18वीं सदी की शुरूआत में वीर बंदा बैरागी एक ऐसा नाम था, जिसको सुनकर दिल्ली की सल्तनत पर बैठे मुगल भी थर्राते थे। खालसा के पहले जत्थेदार बन्दा सिंह बहादुर बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें माधो दास के नाम से भी जाना जाता है। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा, छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी।
 
 
प्रारम्भिक जीवन
 
बाबा बंदा सिंह बहादुर (Sikh warrior Banda Singh Bahadur) का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को जम्मू संभाग (Jammu Kashmir) के राजौरी जिले (Rajouri District) में हुआ था। बचपन से ही बंदा बहादुर सिंह को शिकार करना बेहद पसंद था। जब बंदा सिंह किशोरा अवस्था में थे तो वो अक्सर शिकार खेलने जंगल में जाया करते थे। एक दिन उन्होंने एक हिरनी पर वार किया और वो हिरनी मृत होकर जमीन पर गिर गई। जब वो मृत पडी हिरनी के समीप पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वो हिरनी गर्भवती थी। यह सब कुछ अपनी आँखों से देख बंदा बहादुर को बहुत दुःख हुआ। अंततः उन्होंने घर परिवार से नाता छोड़कर एक वैरागी का जीवन अपनाने का निर्णय लिया। शुरुआत में वे जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य बन गए और यहाँ उन्हें नया नाम मिला माधोदास बैरागी।
 
 
Historical gurudwara in memory of warrior Banda Singh Bahadur in J&K’s Rajouri

  जम्मू-कश्मीर के राजौरी में योद्धा बंदा सिंह बहादुर की याद में ऐतिहासिक गुरुद्वारा
 
 
सिखों के दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंह से बंदा सिंह की मुलाकात
 
 
बंदा सिंह ने लगभग 2 दशक तक ‘माधव सिंह बैरागी’ के रूप में अपना जीवन बिताया। तत्पश्चात वे जीवन का सार और सत्य की खोज में नासिक में बाबा औघरनाथ के आश्रम पहुंचें और उनके शिष्य बन गए। यहाँ कुछ वक्त बिताने के उपरांत बाबा बंदा सिंह 1691 में गोदावरी नदी के किनारे स्थित नांदेड़ (वर्तमान में महाराष्ट्र) पहुंचें और यहाँ उन्होंने अपना एक आश्रम स्थापित किया। महाराष्ट्र के नांदेड में रहते रहते बंदा बहादुर की ख्याति हर तरफ फैलने लगी। बंदा बहादुर करीब 17 वर्ष इस आश्रम में रहे। लेकिन इसी बीच कुछ ऐसा हुआ जिसने बंदा बहादुर की जिंदगी पूरी तरह से बदल गई। दरअसल यहाँ 3 सितंबर 1708 को सिखों के दसवें गुरु गुरुगोविद सिंह नांदेड स्थित बंदा सिंह के आश्रम पहुंचें। यहाँ उन्होंने बंदा सिंह को सन्यासी जीवन त्यागने का और खालसा पन्त अपनाने का उपदेश दिया। बंदा सिंह गुरुगोविंद सिंह के शिष्य बनें जिसके बाद गुरुगोविंद सिंह ने उन्हें गुरबक्स सिंह नाम दिया।
 

Guru Govind singh and banda bahadur singh 
 
 
विशेषज्ञों ने अपनी किताबों में किया जिक्र
 
 
गुरु गोबिंद सिंह ने इस दौरान बंदा सिंह (नया नाम गुरबक्स सिंह) को अपनी तपस्वी जीवन शैली त्यागने और पंजाब के लोगों को मुग़लों से छुटकारा दिलाने का काम सौंपा। इस घटनाक्रम का जिक्र करते हुए जेएस गरेवाल अपनी किताब 'सिख्स ऑफ़ पंजाब' में लिखते हैं, "गुरु गोविन्द सिंह जी ने बंदा सिंह को एक तलवार, 5 तीर और 3 साथी दिए। साथ ही उन्होंने यह निर्देश दिया कि गुरुबक्स सिंह पंजाब में मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का नेतृत्व करें।"
 
 
JS Gerwal history book
 
 
इसके अलावा गोपाल सिंह अपनी किताब ''गुरु गोबिंद सिंह'' में इसका और वर्णन करते हुए लिखते है कि, "गुरु गोविन्द सिंह ने बंदा बहादुर को तीन साथियों के साथ पंजाब कूच करने का निर्देश दिया। उनसे कहा गया कि वो सरहिंद नगर पर जाकर क़ब्ज़ा करें और अपने हाथों से वज़ीर ख़ाँ को मृत्यु दंड दें। बाद में गुरु भी उनके पास पहुंच जाएंगे।" सिख रिसर्च इंस्टिट्यूट टेक्सास के सहसंस्थापक हरिंदर सिंह लिखते हैं कि ‘’38 वर्ष के होते होते हम बंदा सिंह के जीवन की 2 पराकाष्ठाओं को देखते हैं। गुरुगोविन्द सिंह से मिलने से पहले बंदा सिंह वैष्णव और शैव परम्पराओं का पालन कर रहे थे। लेकिन उसके बाद उन्होंने सैनिक प्रशिक्षण, हथियारों और सेना के बिना 2500 किलोमीटर का सफ़र तय किया और 20 महीने के अंदर सरहिंद पर क़ब्ज़ा कर खालसा राज की स्थापना की।"
 
 
नांदेड से पंजाब की ओर कुच
 
 
गुरुगोविंद सिंह के आदेश पर बंदा बहादुर सिंह (गुरबक्स) ने नांदेड से पंजाब की ओर कुंच करना शुरू किया। इधर औरंगजेब की मृत्यु के बाद दिल्ली की गद्दी पर मुग़ल बादशाह बहादुरशाह बैठा था। बहादुर शाह अभी पूरी तरह से बंदा बहादुर की बहादुरी से अंजान था। वर्ष 1709 में जब मुग़ल बादशाह बहादुर शाह दक्षिण में लड़ाई लड़ रहा था, तब बंदा बहादुर पंजाब में सतलज नदी के पूर्व में जा पहुंचे और सिख किसानों को अपनी तरफ़ करने के अभियान में जुट गए। सबसे पहले तो उन्होंने सोनीपत और कैथल में मुग़लों का ख़ज़ाना लूटा और अपने सैनिकों में बंटवा दिया। इस बीच तक बंदा बहादुर के सैनिकों की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी। प्रसिद्द इतिहासकार हरिराम गुप्ता अपनी किताब 'लेटर मुग़ल हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब' में लिखते हैं कि ''महज 3 महीने के भीतर बंदा बहादुर सिंह के सैनिकों की संख्या में 8 हजार सैनिक और 5 हजार घोड़े शामिल हो गए। धीरे धीरे सैनिकों की संख्या 8 हजार से बढ़ कर 19 हजार तक हो गई''।
 
 
बंदा बहादुर ने समाना को पूरी तरह से किया बर्बाद
 
 
अब बंदा बहादुर अपनी सेना के साथ सरहिंद की कस्बे समाना पहुंचे और यहाँ मुग़ल सूबेदार पर हमला कर उसे मौत के घाट उतार दिया। समाना में बंदा बहादुर की सेना ने 10 हजार मुगलों को मौत की नींद सुला दी। पुरे कस्बे को तबाह कर दिया। समाना में इस हमले को अंजाम देने के पीछे एक बड़ा कारण था। जिसके बारे में जिक्र करते हुए इतिहासकार हरिराम गुप्ता अपनी किताब 'लेटर मुग़ल हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब' में लिखते हैं कि ''समाना में उस वक्त मुग़ल सूबेदार वजीर खां रहता था। वजीर खां ने ही 34 वर्ष पूर्व गुरुतेग बहादुर की हत्या की थी। साथ ही गुरुगोविंद सिंह के पुत्रों को दीवार में चुनवा दिया था।‘’ लिहाजा समाना में बंदा बहादुर ने अपने गुरुओं के साथ हुए अत्याचार का बदला लेते हुए समाना को पूरी तरह से तबाह कर दिया। हालाँकि अभी भी मुग़ल सूबेदार वजीर खां जिन्दा था। बंदा बहादुर उसे जल्द ही मार कर अपने गुरु का बदला पूरा करना चाहते थे''।
 
 
 
 
 
सरहिंद पर हमला 
 
 
समाना को पूरी तरह तबाह करने के बाद मई 1710 में बंदा बहादुर ने अपने सैनिकों के साथ मिलाकर सरहिंद पर हमला किया। इस बीच बंदा बहादुर की फ़ौज में करीब 35 हजार सैनिक थे। सरहिंद से लगभग 34 किलोमीटर दूर छप्पर चिड़ी में युद्ध हुआ। इस युद्ध में बंदा बहादुर की बहादुर सेना ने मुगलों की सेना को पूरी तरह से परास्त कर दिया। बंदा सिंह ने अपने सबसे वफादार सेनापति फतह सिंह को मुग़ल तोपखाने को ध्वस्त करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। उधर तोपखानों को ध्वस्त करते करते फतह सिंह समाना सूबेदार वजीर खां तक पहुँच गए। यहाँ दोनों के बीच आमने सामने की लड़ाई हुई और इस युद्ध में फतह सिंह ने पूरी बहादुरी से मुग़ल सूबेदार वजीर खां का सिर कलम कर दिया। वजीर खां की मौत से मुगल सैनिकों में भगदड़ मच गई जिसके बाद सरहिंद के लौहगढ़ किले पर बंदा बहादुर का कब्ज़ा हो गया। यहा सिख साम्राज्य का विस्तार कर बंदा बहादुर सिंह ने लौहगढ़ को अपनी राजधानी घोषित की। सरहिंद की जीत को याद करते हुए उन्होंने नए सिक्के ढलवाए और अपनी नई मोहर जारी की। उन सिक्कों पर गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के चित्र थे। अगस्त 1710 तक सिख साम्राज्य की सीमा लाहौर तक पहुँच गई थी। लिहाजा इन सभी घटनाओं को देखते हुए मुगलों ये बात समझ आ गई थी कि बंदा बहादुर उनके लिए सबसे बड़ा खतरा है।
 
 
Coin of gurugovind singh by banda bahadur singh
 
सरहिंद की जीत को याद करते हुए उन्होंने नए सिक्के ढलवाए

Sarhind Fort 
 सरहिंद का किला 
 
 
गुरदासपुर नांगल किले पर मुगलों का कब्ज़ा
 
  
1712 में बहादुर शाह का निधन हो गया था अब उस गद्दी पर उसका बेटा जहांदार शाह बैठा था। लेकिन कुछ ही समय बाद उसके भतीजे फ़र्रुख़सियर ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। फ़र्रुख़सियर ने कश्मीर के सूबेदार अब्दुल समद ख़ाँ को बंदा सिंह बहादुर गिरफ्तार करने का आदेश दिया। इस बीच समद खां ने 1713 तक बंदा बहादुर को सरहिंद छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद से बंदा बहादुर सिंह सरहिंद छोड़कर गुरदासपुर शहर से चार मील दूर गुरदास नांगल गाँव में बने एक क़िले में रहने लगे। अब मुग़ल सेना ने नांगल किले को चारों तरफ से घेर लिया। मुगलों का पहरा इतना जोरदार था कि किले में आनाज और पानी पहुंचाने वाले सभी रास्तों पर मुग़ल सेना ने कब्ज़ा कर लिया। 5 महीने के भीतर ही किले में राशन ख़त्म हो गया जिससे बंदा बहादुर और उनके साथियों को अब भूखे ही रहना पड़ रहा था। इस दौरान बंदा बहादुर और उनके साथी घास और पत्तियां खाकर अपना गुजारा करते।
 
 
बंदा बहादुर और उनके सैनिकों को दी गई यातनाएं
 
 
प्रसिद्द इतिहासकार हरिराम गुप्ता इस घटना का जिक्र करते हुए अपनी किताब में लिखते हैं, "घास, पत्तियों पर गुज़ारा करते हुए बंदा बहादुर ने ताक़तवर मुग़ल सेना का आठ महीनों तक बहुत बहादुरी से सामना किया। आख़िरकार दिसंबर, 1715 में समद ख़ाँ को बंदा बहादुर का क़िला भेदने में सफलता मिल गई। इस दौरान समद खां ने 300 सिख सैनिकों का क़त्ल कर के रावी नदी में फेंक दिया। मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर ने समद को आदेश दिया कि बंदा बहादुर को जिन्दा दिल्ली लाया जाए। फ़र्रुख़सियर के आदेश पर समद खां बंदा बहादुर और उनके सैंकड़ों सैनिकों को लेकर दिल्ली पहुंचा। दिल्ली पहुँचने पर बंदा बहादुर के मारे गए अन्य सैंकड़ों सैनिकों के सिर को भाले पर टांगकर परेड निकाली गई। दूसरी तरफ जंजीरों में बंधे हुए बंदा बहादुर एक हाथी पर पिंजरे में कैद थे। इस लम्बी परेड के बाद बंदा बहादुर और उनके सैनिकों को फ़र्रुख़सियर के समक्ष पेश किया गया। फ़र्रुख़सियर ने बंदा बहादुर और उनके 23 साथियों को जेल में कैद करने का निर्देश दिया। साथ ही अन्य सैनिकों को दिल्ली के कोतवाल सरबराह खां के हवाले कर दिया।
 

Gurudaspur Fort Banda bahadur singh 
 1713 से 1717 तक बंदा सिंह इसी स्थान पर रहे
 
 
इस्लाम काबुल करने का मुगलों ने बनाया दबाव
 
 
इस बीच बंदा बहादुर और उनके साथियों को तरह तरह की यातनाएं दी गईं, उनके शरीर को धारदार हथियारों से क्षत-विक्षत किया गया। साथ ही उनपर सिख धर्म का त्याग कर इस्लाम कबूल करने के लिए दबाव बनाया गया। लेकिन मुगलों के सामने बंदा बहादुर और वीर सैनिक घुटने टेकने को मजबूर नहीं हुए। करीब एक सप्ताह बाद 5 मार्च, 1716 को इन सिख सैनिकों का कत्लेआम शुरू हुआ। हर सुबह कोतवाल सरबराह ख़ाँ इन सिख सैनिकों से कहता, "तुम्हें अपनी ग़लती सुधारने का आख़िरी मौक़ा दिया जा रहा है। सिख गुरुओं की शिक्षा में अपना विश्वास समाप्त करो और इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लो तुम्हारी ज़िदगी बख़्श दी जाएगी।"
 
 
Mugal and farrukhshiyar
 
  मुग़ल बादशाह बहादुर शाह और फ़र्रुख़सियर
 
बंदा बहादुर के सामने ही उनके मासूम बेटे की हत्या
 
 
तमाम यातनाएं सहने के बावजूद बहादुर सिख सैनिक मुस्कराते हुए न में अपना सिर हिलाते और कोतवाल की पेशकश को ठुकरा देते। करीब 7 दिनों तक लगातार हुए इन नरसंहार के बाद उसको कुछ दिनों के लिए रोक दिया गया। कोतवाल ने फ़र्रुख़सियर को सलाह दी कि बंदा बहादुर को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कुछ समय और दिया जाए। जेल में एकाँतवास में रह रहे बंदा बहादुर की कोठरी के सामने से जब भी कोतवाल सरबराह ख़ाँ गुज़रता, वो उन्हें अपनी माला के दाने गिनता हुआ पाता।" 9 जून , 1716 को बंदा और उनके कुछ साथियों को क़ुतब मीनार के पास महरौली में बहादुर शाह की क़ब्र ले जाया गया। वहाँ उनको उनके सामने सिर झुकाने के लिए कहा गया। बंदा बहादुर के चार साल के बेटे अजय सिंह को उनके सामने लाकर बैठाया गया।
 
 
हरीश ढिल्लों अपनी किताब में लिखते हैं, "कोतवाल सरबराह ख़ाँ के इशारे पर अजय सिंह के तलवार से टुकड़े कर दिए गए। बंदा बिना हिले-डुले बैठे रहे, अजय सिंह के दिल को उसके शरीर से निकाल कर बंदा बहादुर के मुँह में ठूँस दिया गया। इसके बाद जल्लाद ने अपना ध्यान बंदा की तरफ़ केंद्रित किया। उनके शरीर के भी टुकड़े किए गए और उनको जितना संभव हो सका जीवित रखा गया। आख़िर में जल्लाद ने तलवार के एक वार से उनके सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया।"
 
 
बंदा सिंह बहादुर की मौत के दो साल बाद सईद भाइयों ने मराठों की मदद से फ़र्रुख़सियर को न सिर्फ़ गद्दी से हटाया बल्कि गिरफ़्तार कर उसकी आँखें फोड़ दीं। इसके बाद मुग़ल साम्राज्य का भी विघटन होता चला गया और आखिर में नौबत यहाँ तक पहुंची कि दिल्ली का बादशाह अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली बन कर दिल्ली के लाल किले से क़ुतब मीनार तक ही सिमटा रह गया। काबुल, श्रीनगर और लाहौर पर रणजीत सिंह का क़ब्ज़ा हो गया और दक्षिण भारत से लेकर पानीपत तक का विशाल भूभाग मराठों के हाथ में आ गया।
 
 
 
 
Written By : @Arnav Mishra