15 अगस्त 1947 को जब देश स्वाधीन हुआ तो उस वक्त भारत के समक्ष तीन बड़ी चुनौतियाँ थी। वो तीनों चुनौतियाँ 565 रियासतों में से बचे महज 3 रियासत, हैदराबाद, जम्मू कश्मीर और जूनागढ़ (जो आज गुजरात का क्षेत्र है) के रूप में थी। तत्कालीन गृहमंत्री व लौहपुरुष के नाम से विश्व विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपनी समझदारी से स्वाधीनता से पूर्व लगभग सभी रियासतों को भारत में मिला लिया था, लेकिन 3 जगहों पर मामला अटक गया। तीनों में हैदराबाद और जूनागढ़ की स्थिति एक जैसी थी। यानि 80% से 85% आबादी हिंदू थी और वहां का शासक मुस्लिम, लेकिन जम्मू कश्मीर में परिस्थिति उल्टी थी। वहां राजा हिंदू थे और तीन-चौथाई कश्मीरी मुसलमान थे।
अंग्रेजों ने भारत से जाते वक्त इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 लागू किया था। इसके तहत 'लैप्स ऑफ पैरामाउंसी ऑप्शन' दिया गया था। जिसके तहत रियासतों के राजाओं के पास 2 विकल्प थे। या तो वे भारत के साथ अपन अधिमिलन करें या फिर पाकिस्तान का।स्वतंत्र रहने का कोई विकल्प उनके पास मौजूद नहीं था। लेकिन हैदराबाद और जूनागढ़ के शासक खुद को या तो स्वतंत्र घोषित करना चाह रहे थे या फिर पाकिस्तान के साथ अधिमिलन। इस बीच 15 अगस्त 1947 को देश स्वाधीन हुआ लोग आजादी की ख़ुशी मना रहे थे और दूसरी तरफ जूनागढ़ के लोग परेशान थे क्योंकि जूनागढ़ के नवाब महाबत खान ने पाकिस्तान के साथ अधिमिलन का ऐलान कर दिया। जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज भुट्टो की इसमें मुख्य भूमिका रही थी। हालाँकि महाबत खान की ये सबसे बड़ी मुर्खता थी जो उसने पाकिस्तान के बहकावे में आकर पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला कर लिया था। क्योंकि भगौलिक दृष्टि से ये संभव ही नहीं था, क्योंकि जूनागढ़ और पाकिस्तान के बीच समुन्द्र ही एक मात्र मार्ग था जिससे आना जाना हो।
बहरहाल इन सब के बीच जूनागढ़ के नवाब ने 15 सितम्बर 1947 को पाकिस्तान के साथ विलय कर लिया। नवाब के फैसले के बाद जूनागढ़ की 3,337 वर्ग मील क्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में जाने वाली थी और लगभग 4 लाख से अधिक लोगों का जीवन खतरे में था। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि नवाब ऐसा कर सकता है, क्योंकि वहां की जनता किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के साथ जाना नहीं चाहती थी। लेकिन जूनागढ़ के नवाब ने अपने दीवान शाहनवाज भुट्टो (जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता, बेनजीर भुट्टो के दादा) के बहकावे में आकर पाकिस्तान के साथ विलय कर दिया। जैसे ही इस बात की खबर सरदार पटेल को मिली उन्होंने कड़ा विरोध जताया। इधर जूनागढ़ की जनता ने भी विद्रोह शुरू कर दिया। विद्रोह इस हद तक बढ़ गया कि जूनागढ़ का नवाब अपना राज पाठ छोड़कर अपनी जान बचाकर पाकिस्तान भाग निकला। सरदार पटेल किसी भी तरह से जूनागढ़ पर तत्काल कब्जा चाहते थे, लेकिन 'लैप्स ऑफ पैरामांउसी' के कारण उनके हाथ बंधे हुए थे।
तत्कालीन राज्य सचिव वी पी मेनन अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र करते हैं कि पाकिस्तान ने जूनागढ़ के नवाब को उस वक्त 8 करोड़ रूपये दिए थे ताकि वो जूनागढ़ का विलय पाकिस्तान में कर ले। मामला सामने आने के बाद तत्कालीन वायसराय 'लॉर्ड लुई माउंटबेटन', प्रधानमंत्री नेहरु, सरदार पटेल और वी पी मेनन के साथ बैठक हुई। दरअसल पाकिस्तान जबसे आस्तित्व में आया था उसकी नापाक नजर हमेशा से जम्मू कश्मीर पर टिकी थी। लिहाजा जिन्ना की चाहत थी कि वो जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने के बाद वहां अपने लिए एक सैन्य अड्डा बनाए जिसके जरिये वो जम्मू कश्मीर पर कब्ज़ा करने की नीति बनाए। हालाँकि जिन्ना के ये सपने किसी काम के नहीं थे। इधर जूनागढ़ का जो दीवान था शाहनवाज भुट्टो वो जिन्ना का सबसे बड़ा चमचा था और जिन्ना के ही इशारों पर ही काम कर रहा था। उसने जैसे तैसे कर नवाब को भड़काया और विलय पत्र पर हस्ताक्षर करा लिया। सरदार पटेल अब सैन्य कार्रवाई कर इस मसले को सुलझाने ही वाले थे लेकिन माउन्टबैटन ने उन्हें रोक दिया।
19 सितंबर 1947 को वीपी मेनन को जूनागढ़ भेजा था ताकि वो पता लगा सकें कि जूनागढ़ के नवाब की बगावत का असली कारण क्या था। प्लान के मुताबिक वीपी मेनन जूनागढ़ पहुंचते हैं और नवाब से मिलने की कोशिश करते हैं। लेकिन नवाब के दीवान शाहनवाज भुट्टो के रहते यह आसान नहीं था। जब भी वीपी मेनन नवाब से मिलने जाते दीवान उन्हें रोक लेता और कहता कि नवाब साहब बीमार हैं और नहीं मिल सकते। बार-बार एक ही जवाब सुनने के बाद वीपी मेनन को समझ आ गया था कि दीवान ऐसा क्यों कर रहा था। वो समझ चुके थे कि बगावत की असली वजह क्या थी। वीपी मेनन ने जूनागढ़ के दीवान को चलते-चलते कठोरता से सरकार का संदेश देते हुए कहा था कि अगर नवाब ने अपने फैसले पर विचार नहीं किया तो उनका खात्मा तय है।
दूसरी तरफ जूनागढ़ की जनता भी नवाब के फैसले से नाराज थी और वे नवाब के खिलाफ लामबंद होने लगे थे। इसी बीच वी.पी मेनन ने भी सरदार पटेल के आदेश का पालन करते हुए बड़ी भूमिका निभाई। जूनागढ़ में एक तरफ जनता का विद्रोह शुरू हो चुका था, वहीं दूसरी ओर वीपी मेनन मुंबई में कई काठियावाड़ी नेताओं से मिले। इन्हीं में से एक थे उच्छरंगराय ढेबर। ढेबर आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय थे और सत्याग्रह के लिए मशहूर रहे। वी.पी मेनन ढेबर और उनके साथियों को यह समझाने में कामयाब रहे कि अगर जूनागढ़ के लोगों को भारत का हिस्सा बनना है तो उन्हें अपनी जंग लड़नी होगी।
कहते हैं बस यहीं से जूनागढ़ के नवाब की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी। वी.पी मेनन से बैठक के बाद ढेबर सक्रिय हुए और उन्होंने जूनागढ़ के नवाब के साथ कई मुलाक़ाते कीं। ढेबर की तमाम कोशिशों के बावजूद जब नवाब अपने फैसले को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए तो काठियावाड़ी नेताओं ने शामलदास गांधी की अगुवाई में आरज़ी हुकूमत बनाकर नवाब के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। देखते ही देखते जनता ने नवाब के फैसले के खिलाफ बड़ा विद्रोह कर दिया। स्थिति इतनी बद्दत्तर हो चुकी थी कि जूनागढ़ का नवाब महाबत खान अपनी सभी कीमती वस्तुओं को छोडकर कराची भाग गया। नवाब के भागने के बाद जूनागढ़ की जनता ने भारत के साथ मिलने की मांग की। 8 नवंबर 147 को जूनागढ़ भी भारत गणराज्य का हिस्सा बना। लेकिन सरदार पटेल ने सोचा कि अगर हमने ऐसे ही जूनागढ़ को भारत में मिलाया तो दुनिया के सामने एक छवि बन जाएगी कि भारत ने हमला कर के जूनागढ़ पर कब्ज़ा किया। लिहाजा सरकार ने जनमत संग्रह कराने का फैसला किया। लिहाजा जनवरी 1948 में जनमत संग्रह कराया गया जिसमें भारत के पक्ष में कुल 99% वोट मिला।
जूनागढ़ के परिग्रहण का दस्तावेज, दस्तावेज़ का पहला पृष्ठ
जनमत संग्रह के फैसले से यह सुनिश्चित हो गया कि जूनागढ़ भारत का हिस्सा होगा। भारत में शामिल होने के बाद जूनागढ़ को सौराष्ट्र का हिस्सा बनाया गया। तत्पश्चात 1956 में जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो जूनागढ़ सौराष्ट्र का हिस्सा और 1960 में जब गुजरात मुंबई से अलग हुआ तो जूनागढ़ को गुजरात राज्य का हिस्सा बना दिया गया। ऐसा कहते हैं कि जूनागढ़ के नवाब महाबत खान को कुत्तों को बहुत शौक था। जब उसने जूनागढ़ को पाकिस्तान में विलय किया और विरोध होने लगा तो आनन फानन में वो भागकर पाकिस्तान चला गया। पाकिस्तान जाते वक्त नवाब महाबत खान अपने बाकी सभी चीजों को यहीं छोड़ गया लेकिन अपने साथ अपने कुत्ते को ले जाना नहीं भुला।