देश के परमवीर मेजर पीरु सिंह शेखावत की वीरगाथा ; जिन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से चटाया पाकिस्तानी सैनिकों को धूल
मेजर पीरू सिंह शेखावत
जन्म 20 मई 1918 - गाँव रामपुरा बेरी, (झुँझुनू) राजस्थान
20 मई 1936 को 6 राजपुताना रायफल्स में शामिल
जम्मू कश्मीर पर हमेशा से अपनी नापाक निगाहें रखने वाला पडोसी देश पाकिस्तान जम्मू कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से एक बड़े भूभाग पर हमला कर दिया था। 1948 की गर्मियों में पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के भेष में कश्मीर संभाग के टीथवाल सेक्टर में आक्रमण कर दिया था। दुश्मनों के इस हमले ने भारतीय सेना को किशनगंगा नदी पर बने अग्रिम मोर्चे को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। पाकिस्तान के आक्रमण के बाद भारतीय सेना की ओर से जवाबी हमला 11 जुलाई 1948 को शुरू हुआ। यह ऑपरेशन 15 जुलाई तक अच्छी तरह जारी रहा। इस इलाके में दुश्मन एक ऊँची पहाड़ी पर सुरक्षित स्थान पर स्थित था। जहाँ से भारतीय सेना को अपना निशाना बनाना उनके लिए बेहद आसन था। अत: भारतीय सेना को आगे बढ़ने के लिए उस स्थान पर कब्जा करना बेहद आवश्यक था। उसके नजदीक ही दुश्मन ने एक और पहाड़ी पर अपनी बहुत ही मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी।
मेजर पीरु सिंह की वीरगाथा
लिहाजा दुश्मनों को माकूल जवाब देने और उनसे भारत भूमि को मुक्त कराने के लिए 6 राजपुताना रायफल्स को विशेष जिम्मेदारी दी गई। इस बटालियन का नेतृत्व कर रहे थे भारतीय सेना के बहादुर सिपाही मेजर पीरु सिंह। पीरु सिंह के नेतृत्व में उनकी टुकड़ी उरी से तिथवाल के लिए रवाना हुई और तय समय में वहां पहुँच कर अपनी पोजीशन पर तैनात हो गए। मेजर ने अपनी बटालियन की 2 कंपनियां बनाकर 'सी' और 'डी' का गठन किया गया। सेना की टुकड़ी "डी कंपनी" को पहला लक्ष्य हासिल करना था। जहाँ से दुश्मन लगातार गोलीबारी कर रहे थे। "डी कंपनी" का काम पूरा होने के बाद "सी कंपनी" को दूसरे ठिकाने पर कब्जा करना था। लिहाजा अनुमति मिलने के बाद "डी कंपनी" ने 18 जुलाई को रात करीब 1:00 बजे टारगेट पर हमला किया। टारगेट पर पहुंचने के लिए लगभग 1 मीटर चौड़ा रास्ता था जिसे तय करना बेहद मुश्किल था। रास्ते के दोनों और गहरे खड्डे थे और इन संकरे रास्ते के सामने छिपे हुए दुश्मन के बंकर भी थे।
'राजा रामचंद्र की जय' के जयघोष के साथ दुश्मनों पर हमला
दुश्मनों की ओर से D कंपनी पर भारी गोलाबारी की जा रही थी। इन हमलों में आधे घंटे के भीतर मेजर पीरु सिंह के लगभग 51 जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लड़ाई में पीरू सिंह अपने "डी कंपनी" के प्रमुख वर्ग के साथ थे। दुश्मनों के हमले के बीच अपनी जान की परवाह ना करते हुए पीरू सिंह दुश्मन की उस मीडियम मशीन गन पोस्ट की तरफ दौड़ पड़े जो उन के साथियों पर मौत बरसा रही थी। दुश्मन के बमों के छर्रों से पीरू सिंह के कपड़े तार–तार हो चुके थे व उनका शरीर भी बहुत सी जगह से बुरी तरह घायल। पर यह घाव वीर पीरू सिंह को आगे बढ़ने से रोक नहीं सके। वह राजपुताना रायफल्स का जोशीला युद्धघोष ''राजा रामचंद्र की जय” करते लगातार आगे ही बढ़ते रहे। आगे बढ़ते हुए उन्होनें मीडियम मशीन गन से फायर कर रहे दुश्मन सैनिक को अपनी स्टेनगन से मार डाला व कहर बरपा रही मशीन गन बंकर के सभी दुश्मनों को मारकर उस पोस्ट पर कब्जा कर लिया।
हालाँकि इस बीच मेजर पीरु सिंह के अन्य साथी सैनिक दुश्मनों के हमलों में या तो घायल होकर या अपने प्राणों का बलिदान देकर युद्ध भूमि में गिरे थे। पहाड़ी से दुश्मन को हटाने की जिम्मेदारी मात्र अकेले पीरू सिंह पर ही रह गई। इधर पीरु सिंह भी गंभीर रूप से घायल हो चुके थे । किन्तु देश भक्ति का जूनून इस कदर सवार था कि शरीर से बहुत अधिक खून बहते हुए भी वह दुश्मन की दूसरी मीडियम मशीन गन पोस्ट पर हमला करने के लिए आगे बढे। तभी दूसरी चौकी से पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा फेंके गए एक बम ने उनके चेहरे को घायल कर दिया। उन के चेहरे व आँखो से खून टपकने लगा, उन्हने कुछ भी साफ़ नजर नहीं आ रहा था। मेजर पीरु सिंह के स्टेन गन की सारी गोलियां भी खत्म हो चुकी थी। फिर भी दुश्मन के जिस बँकर पर उन्होने कब्जा किया था, उस बँकर से वह बहादुरी से रेंगते हुए बाहर निकले, व दूसरे बँकर पर बम फेंक कर उसे भी ध्वस्त कर दिया।
प्राण त्यागने से पहले भारत भूमि को दुश्मनों से कराया मुक्त
बम फेंकने के बाद पीरू सिंह दुश्मन केे उस बँकर में कूद गए व 2 दुश्मन सैनिकों को मात्र स्टेन गन के आगे लगे चाकू से मार गिराया। जैसे ही पीरू सिंह तीसरे बँकर पर हमला करने के लिए बाहर निकले उन के सिर में एक गोली आकर लगी और वह वीरगति को प्राप्त हो गए। लेकिन प्राण त्यागने से पहले मेजर पीरु सिंह ने दुश्मन के उस बंकर में जो ग्रेनेड फेंका था वह फटा और उस बँकर में एक भयंकर धमाका हुआ, जिस से साबित हो गया कि पीरू सिंह के फेंके बम ने अपना काम कर दिया है। उन्हे कवर फायर दे रही “C” कंपनी के कंपनी कमांडर ने यह सारा दृश्य अपनी आँखों से देखा। अपनी विलक्षण वीरता के बदले उन्होने अपने जीवन का मोल चुकाया, पर अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी एकाकी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पाकिस्तानियों के कब्जे से भारत भूमि को मुक्त कराया।
अपनी प्रचंड वीरता, कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा और प्रेरणादायी कार्य के लिए कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह भारत के युद्धकाल के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार “परमवीर चक्र” से मरणोपरांत सम्मानित किए गए।
संक्षिप्त परिचय
पीरू सिंह का जन्म 20 मई, 1918 को राजस्थान के झुंझुनू ज़िले के बेरी गाँव में हुआ था। मेजर पीरु सिंह के 3 भाई और 4 बहन थीं। पीरू सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। 7 वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि पीरू सिंह का मन स्कूली शिक्षा में नहीं लगा। स्कूल में एक साथी से उनका झगड़ा हो गया था। तब स्कूल के अध्यापक ने उन्हें डाँट लगाई। लेकिन बचपना सर पर सवार था, लिहाजा गुस्से में वे अपनी स्लेट वहीं पर पटके और स्कूल से भाग गये। इसके बाद वे कभी पलट कर स्कूल नहीं गये।
स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगने पर पीरू सिंह के पिता ने उन्हें खेती बाड़ी में लगा लिया। वह एक सम्पन्न किसान थे। खेती में पीरू सिंह ने अपनी रुचि दिखाई। वह अपने पिता की भरपूर मदद किया करते थे। उन्होंने किसानी का कार्य अच्छी तरह से सीख लिया था। किसानी के अतिरिक्त कई प्रकार के साहसिक खेलों में भी उनका बहुत मन लगता था। शिकार करने के तो वह बचपन से ही शौकीन रहे थे। अपने इस शौक़ के कारण वह कई बार घायल भी हुए थे।
किसानी से सैनिक बनने का सफ़र
शिकार के शौक़ ने ही पीरू सिंह को सेना में आने और फौजी बनने के लिए प्रेरित किया था। 1936 को पीरू सिंह ने फौज में कदम रखा। उन्हें 10/1st पंजाब में प्रशिक्षण के लिए लिया गया। फिर 1 मई, 1937 को उन्हें 5/1st पंजाब में नियुक्त कर लिया गया। फौज में आने के बाद ही पीरू सिंह के चरित्र में आश्चर्यजनक बदलाव आया। स्कूल में उन्हें पढ़ाई से चिढ़ थी, लेकिन फौज में वह पढ़ाई की ओर से बेहद गंभीर सैनिक सिद्ध हुए। कुछ ही वर्षों में उन्होंने 'इंडियन आर्मी फर्स्ट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ़ एजुकेशन' सफलतापूर्वक पा लिया।
अपनी शिक्षा के आधार पर 17 अगस्त, 1940 को पीरू सिंह लांस नायक के रूप में पदोन्नत हुए। इसी दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध में भी भाग लिया। मार्च, 1941 में वह नायक बनाये गए। सितम्बर, 1941 को वह शिक्षा के बल पर ही पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में इंस्ट्रक्टर बने, जहाँ वह अक्टूबर, 1945 तक कार्य करते रहे। फ़रवरी, 1942 में वे हवलदार के रूप में पदोन्नत हुए। फिर मई, 1943 में वह कम्पनी हवलदार मेजर बन गये। उनकी तरक्की का यह रुझान हमेशा यह बताता रहा कि पीरू सिंह एक कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार फौजी थे। देश के ऐसे महान वीर सैनिक को हमारा कोटि कोटि नमन।
अर्नव मिश्रा (उज्जवल)