1962, India-China War : यह कहानी है परमवीर चक्र विजेता सूबेदार जोगिंदर सिंह की, जिन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में अदम्य साहस, नेतृत्व और बहादुरी का परिचय देते हुए चीन के कई हमलों को नाकाम किया। उन्होंने अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ दुश्मनों की भारी सेना का सामना करते हुए देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया। उनकी वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है। इस लेख में हम उस महानायक की जीवन गाथा और उनके द्वारा दिए गए अद्वितीय योगदान को याद करेंगे।
प्रारंभिक जीवन और सेना में प्रवेश
सूबेदार जोगिंदर सिंह का जन्म 26 सितंबर 1921 को पंजाब के मेहकालन गांव में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने अपने गांव में ही पूरी की और 10वीं कक्षा पास करने के बाद मात्र 15 साल की उम्र में सिख रेजीमेंट में भर्ती हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध में उन्होंने बर्मा में ब्रिटिश सेना के साथ लड़ाई लड़ी और अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया।
जोगिंदर सिंह ने न केवल द्वितीय विश्व युद्ध में बल्कि 1947-48 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी अद्वितीय शौर्य दिखाया। उन्होंने अपनी रेजीमेंट के साथ मिलकर कई पाकिस्तानी सैनिकों को पराजित किया। लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध में उनके साहस और बलिदान ने उन्हें अमर कर दिया।
भारत-चीन युद्ध (1962)
चीन की विस्तारवादी नीति और भारत के साथ छलपूर्ण व्यवहार के चलते 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश के कई हिस्सों पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से हमला शुरू किया। इस हमले का मुख्य उद्देश्य त्वांग पर कब्ज़ा जमाना था। उस समय सूबेदार जोगिंदर सिंह की टुकड़ी बुमला एक्सिस के टॉन्गपेंग ला इलाके में गश्त कर रही थी, जब उन्होंने भारी संख्या में चीनी सैनिकों को देखा। जोगिंदर सिंह ने तुरंत अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया और आदेश मिला कि किसी भी हालत में दुश्मनों से भारतीय क्षेत्र की रक्षा करनी है।
वीरता का प्रदर्शन
23 अक्टूबर 1962 को चीनी सैनिकों ने जोगिंदर सिंह की टुकड़ी पर पहला हमला किया। लगभग 200 चीनी सैनिकों ने एक साथ धावा बोला, लेकिन भारतीय सैनिकों ने बहादुरी से उसका सामना किया। 27 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी ने अदम्य साहस दिखाते हुए दुश्मनों को पीछे धकेला और कई चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
हालांकि, चीनी सैनिकों ने हार मानने के बजाय दूसरी बार फिर हमला किया। इस हमले में जोगिंदर सिंह घायल हो गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। एक गोली उनके जांघ में लगी, फिर भी उन्होंने दुश्मनों का सामना करते हुए मोर्चा संभाला और अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते रहे।
तीसरा और आखिरी हमला सबसे खतरनाक था। जोगिंदर सिंह की टुकड़ी के अधिकांश जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे, गोला-बारूद भी खत्म हो चुका था। लेकिन इसके बावजूद, उन्होंने अपने बचे हुए जवानों को तैयार किया और राइफल में लगे खंजर से चीनी सैनिकों पर हमला बोल दिया। 'जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल' का उद्घोष करते हुए उन्होंने कई दुश्मनों को ढेर कर दिया। जब उनके गनर वीरगति को प्राप्त हुए, तो उन्होंने खुद मोर्टार से हमला करना शुरू किया और कई दुश्मनों को मार गिराया। अंततः, दुश्मनों की एक बड़ी टुकड़ी ने उन्हें घायल अवस्था में बंदी बना लिया। कुछ घंटे बाद, उनकी वीरगति हो गई।
अद्वितीय बलिदान परमवीर सम्मान
भारत सरकार ने सूबेदार जोगिंदर सिंह के अद्भुत शौर्य, नेतृत्व और साहस के लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया। उनके बलिदान को चीन ने भी सराहा और उनकी अस्थियां पूरे सम्मान के साथ उनकी बटालियन को लौटा दीं।
संक्षिप्त परिचय
सूबेदार जोगिंदर सिंह का जन्म 26 सितंबर 1921 को पंजाब के मेहकालन गांव में हुआ। वे 15 साल की उम्र में सेना में भर्ती हुए और द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1962 के भारत-चीन युद्ध में वीरता का परिचय दिया। सूबेदार जोगिंदर सिंह ने अपनी कड़ी मेहनत, चतुराई और बहादुरी से न केवल अपने साथियों का मनोबल बनाए रखा, बल्कि दुश्मनों को करारी शिकस्त दी।
आज हम माँ भारती के इस वीर सपूत को नमन करते हैं, जिनके अद्वितीय शौर्य और बलिदान की कहानी आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहेगी।