जम्मू कश्मीर के अधिमिलन को लेकर हमेशा से एक दुष्प्रचार किया गया कि महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे और जम्मू कश्मीर को विशेषाधिकार दिया गया था, इसके अलावा देसी रियासतों का अधिमिलन धर्म के आधार पर होना था। यह एक निराधार और असत्य अवधारणा है। धर्म के आधार पर केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन हुआ था, परिणामस्वरूप पाकिस्तान आस्तित्व में आया। लेकिन देसी रियासतों के विषय में फैसला लेने का अधिकार केवल राजा को ही था। सभी रियासतों की तरह जम्मू कश्मीर को भी जो अधिमिलन पत्र सौंपा गया था उसमें 2 ही शर्त थीं। और वो शर्त थी भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनना। ऐसे में स्वतंत्र बने रहने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। इस बात की पुष्टि खुद माउंटबेटन ने 25 जुलाई 1947 को ''चैम्बर ऑफ़ प्रिंसेस'' की बैठक में घोषित की। जम्मू कश्मीर भी ऐसी ही रियासतों में से एक था जिसका अधिमिलन महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के पक्ष में किया था। यह एक कानूनी प्रक्रिया थी। इस अधिमिलन का प्रभाव यह था कि संयुक्त राष्ट्र में भी जम्मू कश्मीर को भारत का अंग माना गया और पाकिस्तान को एक आक्रमणकारी घोषित किया गया। यह तथ्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के दस्तावेजो में बहुत स्पष्ट रूप से लिखित है।
महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव
जम्मू कश्मीर के अधिमिलन में महाराजा हरि सिंह की सबसे अहम भूमिका थी। उनके साथ साथ तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दुर्भाग्य से एक सत्य यह भी है कि महाराजा हरि सिंह के साथ आजाद भारत में सबसे ज्यादा अन्याय हुआ। महाराजा हरि सिंह ने भारत को चुना, एक राजा के तौर पर ये उनके लिए बहुत बड़ा निर्णय था। क्योंकि महाराजा पर (Governor-General, Lord Mountbatten) मांउटबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना और खुद उनके प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की तरफ से लगातार दबाव बनाया जा रहा था कि महाराजा जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बना दें। कहते हैं कि जम्मू कश्मीर के उस वक्त जो तत्कालीन प्रधानमंत्री थे रामचंद्र काक उनकी पत्नी ब्रिटिश नागरिक थी। लिहाजा उनकी शह पर काक हमेशा महाराजा हरि सिंह को गलत सलाह दिया करते थे। आखिरकार महाराजा को जब इन बातों की जानकारी हुई तो उन्होंने 10 जुलाई 1947 को काक को हटाकर जनक सिंह को राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया।
राज्य मंत्रालय के सचिव, वी. पी. मेनन ने अपनी पुस्तक में काक के इरादों का स्पष्ट वर्णन किया है, “राज्य मंत्रालय की स्थापना के बाद, भौगोलिक दृष्टि से भारत से समीप रियासतों के अधिमिलन के लिए शासकों एवं उनके प्रतिनिधियों के साथ हम समन्वेशी बातचीत कर रहे थे। जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री, पंडित रामचंद्र काक उस समय दिल्ली में थे। पटियाला के महाराजा के सुझाव पर, हमने उन्हें इस प्रकार के एक सम्मेलन में आमंत्रित किया लेकिन वे इसमें शामिल हो पाने में असमर्थ रहे। तत्पश्चात् उनकी मुलाक़ात मुझसे गवर्नर-जनरल के घर हुई। मैंने उनसे पूछा कि भारत अथवा पाकिस्तान से अधिमिलन के संबंध में महाराजा का क्या रवैया है, लेकिन उन्होंने मुझे बेहद कपटपूर्ण उत्तर दिया। काक ने सरदार से भी मुलाकात की। मैं न उस व्यक्ति को और न ही उनके खेल की गहराई समझता हूँ। बाद में, लॉर्ड माउंटबैटन ने काक और जिन्ना के बीच एक मुलाकात की व्यवस्था की”। अंत में, 10 अगस्त, 1947 को महाराजा ने काक को पदच्युत कर राज्य का प्रधानमंत्री, जनक सिंह को नियुक्त कर दिया’’।
महाराजा हरि सिंह का सरदार पटेल को संदेश
महाराजा हरि सिंह का सरदार पटेल के प्रति बहुत आदर था क्योंकि कांग्रेस के नेताओं में से सिर्फ उन्ही के शब्दों पर वे विश्वास कर सकते थे। मार्च 1947 में जब महाराजा हरि सिंह इन तमाम विषम परिस्थितियों में घिर चुके थे तो उन्होंने अपना संदेश सरदार वल्लभ भाई पटेल को भेजा। संदेश के माध्यम से उन्होंने एक एडवाइजर की इच्छा जाहिर की थी। ऐसे में सरदार पटेल ने महाराजा हरि सिंह को सुझाव दिया कि इसके लिए सबसे उपयुक्त मेहरचंद महाजन हो सकते हैं। चूँकि पटेल को पता था कि महाराजा के प्रधानमंत्री काक उनको गलत सलाह दे रहे हैं। उन पर पाकिस्तान में शामिल होने का दवाब भी बना रहे हैं, लेकिन सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह पर कोई दबाव नहीं बनाना चाहते थे। बहरहाल महाराजा की इच्छा पर पटेल ने उन्हें मेहरचंद महाजन को अपना प्रधानमंत्री बनाने की मित्रवत सलाह दी। मार्च 1947 में महाराजा हरि सिंह ने अपने बेटे डॉ. कर्ण सिंह और अपनी पत्नी को लाहौर भेजा। क्योंकि मेहरचंद महाजन उन दिनों लाहौर हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस थे। महाराजा का संदेश मेहरचंद महाजन को दिया गया। जिसमें कहा गया कि महाराजा चाहते हैं कि आप जैसा संविधान का ज्ञाता और आप जैसा परिस्थितियों का जानकार व्यक्ति मेरा सलाहकार होगा तो मुझे निर्णय लेने में कोई समस्या नहीं होगी।
मेहरचंद महाजन स्वतंत्र भारत के तीसरे मुख्य न्यायाधीश थे। इसके पहले वो पंजाब सूबे के जाने माने वकील थे। जो बाद में उत्तरी पंजाब हाईकोर्ट के जज भी बने। पटेल की सलाह पर महाराजा हरि सिंह ने उन्हें रामचंद्र काक की जगह प्रधानमंत्री नियुक्त किया। महाजन को रेडक्लिफ कमीशन के मेंबर के तौर पर भारत पाकिस्तान की सीमा तय करने की जिम्मेदारी दी गई थी। सीमा तय करते वक्त पाकिस्तान समर्थित लॉबी चाहती थी कि पंजाब का गुरदासपुर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाए। लेकिन महाजन ने तर्क दिया कि चूंकि गुरदासपुर में ज्यादातर सिख हैं औऱ रावी नदी सिखों के लिए भावानात्मक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है तो रावी नदी को बॉर्डर मान लिया जाए और इस तरह गुरूदासपुर भारत का हिस्सा बन गया। गुरूदासपुर इसीलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि सामरिक रूप से सिर्फ गुरुदासपुर ही जम्मू कश्मीर को सड़क के जरिये भारत से जोड़ता था। ऐसी सामरिक दृष्टि वाले शख्स को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनवा देना पटेल की सबसे बड़ी कूटनीटिक जीत थी। जिसकी परिणति जम्मू कश्मीर अधिमिलन के रूप में देखने को मिली।
पाकिस्तानी हमला
1947 में ब्रिटेन समेत अंतरराष्ट्रीय ताकतें जम्मू कश्मीर राज्य को भारत में शामिल न होने देने की चालें चल रही थीं। क्योंकि एशिया में जम्मू कश्मीर का बहुत बड़ा भौगोलिक और सामरिक महत्व है। ब्रिटिश शासन ने तमाम कूटनीतिक चालें चली। लेकिन बावजूद इसके जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को अपने राज्य का हित भारत के साथ ही नजर आता था। लिहाजा जब पाकिस्तान को यह महसूस हो गया कि जम्मू कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा कभी बनना ही नहीं चाहता तो पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर हमला कर कब्ज़ा करने की योजना बनाई। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने मुज्जफ्फराबाद पर हमला किया और वहां कत्लेआम मचाने के बाद मुज्जफ्फराबाद, भीम्बर, कोटली जैसे इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया। जोकि आज भी पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू कश्मीर का हिस्सा हैं। इन क्षेत्रों में हजारों हिन्दुओं व सिखों का कत्लेआम करने के बाद पाकिस्तानी सेना जम्मू कश्मीर की सीमा में प्रवेश करते हुए पुंछ, उरी और बारामुला तक पहुँच चुकी थी। पाकिस्तानी हमलावरों का अगला निशाना श्रीनगर एयर bबेस पर कब्ज़ा करने का था। अगर श्रीनगर पर पाकिस्तानी सेना का कब्ज़ा हो जाता तो यकीनन भारत को जम्मू कश्मीर से हाथ धोना पड़ता।
भारत के साथ अधिमिलन
महाराजा ने 24 अक्तूबर, 1947 को भारत सरकार से सहायता के लिए संपर्क किया। उस समय, भारत के साथ राज्य का सैन्य और राजनैतिक समझौता नहीं था। माउंटबैटन की अध्यक्षता में नई दिल्ली में रक्षा समिति की एक बैठक हुई जिसमें महाराजा की मांग पर हथियार एवं गोला-बारूद की आपूर्ति का विचार किया गया। सेना के सुदृढ़ीकरण की समस्या पर भी विचार किया गया और माउंटबैटन ने आगाह किया कि जम्मू-कश्मीर जब तक अधिमिलन स्वीकार नहीं करता है तब तक वहां सेना भेजना जोखिम भरा हो सकता है। इस घटना के बाद, वी. पी. मेनन को महाराजा के पास स्थिति की व्याख्या और प्रत्यक्ष विवरण प्राप्त करने के लिए श्रीनगर भेजा गया। अगले दिन, मेनन ने विक्षुब्ध स्थिति की सूचना दी और महसूस किया कि भारत ने अगर शीघ्र सहायता नहीं की तो सब समाप्त हो जाएगा।
रक्षा समिति ने सैनिकों को तैयार किए जाने तथा वहां भेजने के फैसले के साथ तय किया कि यदि अधिमिलन की पेशकश होती है तो उसे स्वीकार किया जाएगा। उसी दिन, मेनन फिर से श्रीनगर वापस गए। इस बार वे अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर लेकर दिल्ली लौंटे। जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन भारत के गवर्नर-जनरल, माउंटबैटन द्वारा उसी तरह स्वीकार हुआ जैसा अन्य भारतीय रियासतों के साथ किया गया था। आखिरकार कानूनी शर्तों के अनुसार 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा बन गया। भारत के साथ अधिमिलन होते ही पहले से तैयार भारतीय सेना की पहली विमान श्रीनगर पहुंची और पाकिस्तानी सैनिकों को वापस खदेड़ना शुरू कर दिया।
मेहरचंद महाजन की पुस्तक लुकिंग बैक
जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री, मेहरचंद महाजन ने भी अपनी पुस्तक "लुकिंग बैक" में लिखा है कि महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कभी तैयार नहीं थे। वे लिखते है, “कायद-ए-आज़म जिन्ना के निजी पत्रों के साथ उनके ब्रिटिश सैन्य सचिव तीन बार महाराजा से मिलने श्रीनगर आए। महाराजा को बताया गया कि जिन्ना का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उनके चिकित्सकों ने सलाह दी है कि वे गर्मियां कश्मीर में बिताए। वहां रुकने पर वे अपनी स्वयं की व्यवस्था के लिए भी तैयार थे। इस कदम के पीछे असली मकसद राज्य में पाकिस्तान समर्थक तत्वों की सहायता से महाराजा को पाकिस्तान के साथ अधिमिलन स्वीकार करने के लिए सहमत अथवा विवश करवाना था। अगर यह सब कुछ असफल जाता तो महाराजा को गद्दी से हटा कर राज्य से दूर कर दिया जाता...... उन्होंने (महाराजा) श्रीनगर में गर्मियां बिताने के लिए जिन्ना को आमंत्रित करना विनम्रता से अस्वीकार कर दिया''।
इसके अलावा 19 जून, 1947 को माउंटबैटन ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया और 4 दिनों तक वहां रहे। उन्होंने पाकिस्तान में अधिमिलन के लिए महाराजा को समझाने के प्रयास किए। विभिन्न कार ड्राइव्स के दौरान उनकी कुछ मुलाकातें हुई। इस मौके पर माउंटबैटन ने आग्रह किया अगर जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के साथ जाता है तो भारत सरकार को इससे कोई समस्या नहीं है। हालांकि, महाराजा ने उन्हें एक व्यक्तिगत मुलाकात का सुझाव दिया जिसका समय यात्रा के आखिरी दिन तय किया गया था। माउंटबैटन यह सोचकर सहमत हो गए इससे महाराजा को सोचने का अधिक मौका मिल जायेगा लेकिन जब समय आया तो उन्होंने एक संदेश भेजा कि वे बीमार है और भेंट करने में असमर्थ है। इस प्रकार उन्होंने पाकिस्तान के साथ जाने के सुझाव से बचाव किया।