
हमेशा से यह दावा किया जाता रहा है कि मुस्लिम शासकों ने भारत में करीब 3500 से अधिक मंदिर और धार्मिक स्थलों को तोड़कर अपने मजार और मस्जिदे बनवाई। हालाँकि इन सभी हकीकतों से आज तक पर्दा उठाने की कोशिश तक नहीं की गई। बल्कि उसकी जगह भारत में मुगल आक्रान्ताओं का महिमामंडन किया जाता रहा। चाहे अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि हो, या काशी विश्वनाथ मंदिर में ज्ञानवापी मस्जिद, या फिर कृष्ण जन्मभूमि पर बना शाही ईदगाह मस्जिद ऐसे कई धार्मिक स्थल हैं जिन्हें मुस्लिम शासन काल में खंडित कर मस्जिद में बदल दिया गया। आज उन सभी प्राचीन और ऐतिहासिक धरोहरों को वापस लेने के लिए क़ानूनी लड़ाई जारी है। अयोध्या में पुनः श्री राम जन्मभूमि पर भव्य श्री राम मंदिर के निर्माण के तुरंत बाद काशी के ज्ञानवापी मामले में हिन्दुओं को कोर्ट से बड़ी रहत मिली। उन्हें ज्ञानवापी के व्यासजी तल में पूजा करने की अनुमति मिली। अब उसके ठीक बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत में स्थित महाभारत काल के लाक्षागृह मामले में हिन्दू पक्ष को बड़ी जीत हासिल हुई है।
53 साल 8 महीने 20 दिन बाद फैसला
दिल्ली से महज 80 किलोमीटर दूर बागपत में स्थित महाभारत काल के प्राचीन और ऐतिहासिक धरोहर लाक्षागृह को प्राप्त करने में हिन्दुओं को 53 साल 8 महीने 20 दिन का समय लग गया। 5 दशकों से भी ज्यादा समय तक चले इस क़ानूनी लड़ाई में तब जाकर सिद्ध हुआ कि यह कोई कब्रिस्तान ने बल्कि महाभारत काल का लाक्षागृह ही है। इतने लंबे समय में अदालत में लगभग 875 तारीखें लगीं, जिनमें वादी और पैरोकार तर्क-वितर्क में लगे रहे। इनमें से कई लोगों की मौत भी हो चुकी है। और अब हिन्दुओं के पक्ष में फैसला आया है और उनकी ऐतिहासिक धरोहर वापस उन्हें मिल गई। बहरहाल इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि यह फैसला भी राम मंदिर निर्माण और ज्ञानवापी में पूजा की अनुमति का आदेश मिलने के उपरान्त आया है। बहरहाल अब हम आपको इस लाक्षागृह के उस इतिहास को बताएँगे जिसे कोर्ट ने भी सिद्ध कर दिया है।
कब और कैसे शुरू हुआ मामला ?
दरअसल लाक्षागृह को लेकर हिंदू और मुस्लिम पक्ष के बीच पिछले 54 सालों से विवाद चल रहा था। बताया जाता है कि 31 मार्च 1970 में मेरठ के सरधना की कोर्ट में बरनावा निवासी मुकीम खान ने वक्फ बोर्ड के पदाधिकारी की हैसियत से एक केस दायर कराया था। दायर याचिका में यह दावा किया गया कि यह कब्रिस्तान और बदरुद्दीन की दरगाह है। कहा गया कि यहां पर लाक्षागृह कभी था ही नहीं। अदालत में प्रतिवादी कृष्णदत्त जी महाराज ने प्राचीन टीले को लाक्षागृह होने का दावा करते हुए साक्ष्य पेश किए। कई वर्षों तक वादी और प्रतिवादी अदालत में अपने अपने साक्ष्य पेश कर इस लड़ाई को लड़ते रहे। लेकिन फिर कुछ वर्षों बाद वादी और प्रतिवादी की मौत हो गई और फिर केस की पैरवी दूसरे लोगों ने करनी शुरू कर दी। वर्ष 1997 में मेरठ को विभाजित कर बागपत को जनपद बनाया गया तो यह वाद बागपत की अदालत में ट्रांसफर हो गया। यानि दोनों ही जनपदों में वाद की सुनवाई लगभग 27-27 साल हुई। आखिरकार 31 मार्च 1970 में दर्ज इस मामले की सुनवाई 5 फरवरी 2024 यानि सोमवार को पूरी हुई और इसपर फैसला आया। इस मामले पर अदालतों में तक़रीबन 875 तारीखें लगाई गईं।
यह तो सर्वविदित है कि दुर्योधन आरंभ से ही पांडवों से शत्रुता रखता था और हर पल उन्हें मारने का षड़यंत्र रचता रहता था। वो कभी नहीं चाहता था कि राज सिंहासन पांड्वो को मिले। लिहाजा इसके लिए उसने एक योजना बनाई जिसमें उसके मामा शकुनी उसके साथ थे। योजना थी लाक्षागृह का निर्माण करना और फिर उसमें पांड्वो को जलाकर मार देना। इसके लिए दुर्योधन ने वाणावृत में लाक्षागृह का निर्माण कराया यह वही स्थान है जिसका अवशेष बागपत जिले के बरनावा क्षेत्र में मिलता है। दावा किया जाता है कि इस महल में बनाई गई सुरंग हिंडन नदी के समीप खुलती है।
हस्तिनापुर की जनता के बीच पांड्वो काफी ज्यादा लोकप्रिय थे। लिहाजा धृतराष्ट्र भी युधिष्ठिर को राज्य का अधिकार सौंपने का मन बना चुके थे। लेकिन दुर्योधन को यह मंजूर नहीं था। ऐसे में दुर्योधन को समझाते हुए धृतराष्ट्र ने कहा कि बेटा दुर्योधन! युधिष्ठिर सन्तानों में सबसे बड़ा है इसलिये इस राज्य पर उसी का अधिकार है। फिर भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं।" लेकिन धृतराष्ट्र की यह बात दुर्योधन को पसंद नहीं आई। उनके इन वचनों को सुन कर दुर्योधन ने कहा, "पिताजी! मैंने इसका प्रबन्ध कर दिया है, बस आप किसी तरह पाण्डवों को वारणावत भेजने के लिए कह दें।" यह वही स्थान जहाँ पांड्वो को भेजकर दुर्योधन उन्हें मारना चाहता था।
पांडवों को लाक्षागृह जाने का आदेश
दुर्योधन ने पांडवों के रहने के लिए पुरोचन नामक शिल्पी से एक भवन का निर्माण करवाया था। यह पूरा महल लाख, चर्बी, सूखी घास आदि से बना था। यानि यह इस प्रकार से निर्मित किया गया था जिसमें जल्द ही आग पकड़ ले। इसके पीछे दुर्योधन की सोच यह थी जब पांडव इस महल में गहरी नींद में सो जाएंगे तो इसमें आग लगा दी जाएगी, जिससे यह महल तुरंत ही जलकर राख हो जाए और किसी को बच निकलने का कोई मौका न मिले। लाक्षागृह के निर्माण के बाद दुर्योधन ने पिता को भी अपनी बातों से मना ही लिया था। लिहाजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को वाणावृत जाने का आदेश दिया। धृतराष्ट्र के आदेश का पालन करते हुए युधिष्ठिर अपनी माता और सभी भाइयों के साथ वाणावृत्त में रहने लगे।
विदुर ने खोला दुर्योधन का राज
लेकिन दुर्योधन की यह योजना विदुर के कारण विफल हो गई। जब युधिष्ठिर वाणावृत जा रहे थे तो उनकी भेंट विदुर से हुई। इस दौरान विदुर ने दुर्योधन के सारे षड्यंत्र के बारे में बता दिया और पांड्वो को सर्तक रहने के लिए कहा। विदुर ने युधिष्ठिर को बताया कि दुर्योधन ने ज्वलनशील पदार्थों से महल बनवाया है जो आग लगते ही राख हो जाएगा। विदुर ने युधिष्ठिर से कहा कि तुम लोग भवन के अन्दर से ही वन तक पहुंचने के लिये एक सुरंग बना लेना ताकि संकट आने पर उसका प्रयोग कर सको। मैं सुरंग बनाने वाला कारीगर चुपके से तुम लोगों के पास भेज दूंगा। लेकिन तब तक सावधानी से महल में रहना।
योजना का पता लगने के बाद पांडव अपने बचाव के लिए उपाय करने लगे। कड़ी मेहनत के बाद सुरंग तैयार हुई फिर एक दिन यधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, "भीम! अब दुष्ट पुरोचन को इसी लाक्षागृह में जला कर हम सभी लोगों को यहां से निकल लेना चाहिए। भीम ने उसी रात्रि पुरोचन को बंदी बना लिया और महल में आग लगा दी। युधिष्ठिर माता कुन्ती और भाइयों के साथ सुरंग के रास्ते सुरक्षित निकल आए। लेकिन जब पांडवों के बच निकलने की जानकारी दुर्योधन को हुई तो उसे अपनी योजना के विफल होने पर बहुत क्रोध आया और पुन: नई योजना की तैयारी करने लगा। यह स्थान बागपत में है जिसकी दशकों पुरानी क़ानूनी लड़ाई खत्म हुई और हिन्दुओं को उनका अधिकार मिला।
खुदाई में महाभारत काल के प्रमाण
इसी 108 बीघे जमीन पर पांडव कालीन एक सुरंग है। दावा किया जाता है कि इसी सुरंग के जरिए पांडव लाक्षागृह से बचकर भागे थे। इतिहासकारों का दावा है कि इस जगह पर जो अधिकतर खुदाई हुई है। उसमें को साक्ष्य मिले हैं। वे सभी हजारों साल पुराने हैं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि यहां पर मिले हुए ज्यादातर सबूत हिंदू सभ्यता के ज्यादा करीब है। मुस्लिम पक्ष के दावे पर हैरानी जताई जाती रही है। इसी जमीन पर गुरुकुल एवं कृष्णदत्त आश्रम चलाने वाले आचार्य का कहना हैं कि कब्र और मुस्लिम विचार तो भारत मे कुछ समय पहले आया, जबकि पहले हजारों सालों से ये जगह पांडवकालीन है।