30 अप्रैल 2006, डोडा-उधमपुर नरसंहार की कहानी ; जब इस्लामिक आतंकवादियों ने की 34 हिन्दुओं की नृशंस हत्या

    30-अप्रैल-2024
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Doda Massacre 30 april 2006 story
 
जम्मू कश्मीर में 90 के दशक में धर्म के नाम पर इस्लामिक आतंकियों द्वारा खूनी खेल खेला गया। इस्लामिक जिहादियों ने घाटी में चुन चुन कर कश्मीरी हिन्दुओं को अपना निशाना बनाया। लोगों से पहले उनका मजहब पूछा जाता और फिर उनकी नृशंस हत्या कर दी जाती थी। उन दिनों कश्मीलर की मस्जिदों से रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजते थे। जैसे ''यहां क्यां चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'कश्मीरर में अगर रहना है, अल्लांहू अकबर कहना है'' और 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' मतलब हमें पाकिस्ता्न चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। 89 से शुरू हुआ हत्या का ये दौर 2006 तक यूँही चलता रहा।
 
 
जम्मू-कश्मीर में इस्लामी आतंकवादियों द्वारा हिन्दुओं के साथ समय-समय पर किए गए नृशंस नरसंहारों में से एक मुख्य घटना 30 अप्रैल, 2006 को भी हुई। जब जम्मू संभाग के डोडा जिले में आतंकियों ने 35 ग्रामीणों को उनका मजहब पूछकर मार डाला। ऐसी घटनाओं को अक्सर भारतीय मीडिया और कुछ विचारधारा के लोगों द्वारा उपेक्षित किया जाता है। उस दिन, डोडा और उधमपुर जिलों में 2 भयानक आतंकवादी हमलों में कम से कम 35 हिन्दू ग्रामीणों की जानें चली गईं थीं।
 
 
30 अप्रैल 2006 के दिन डोडा ज़िले के कुल्हंद में थावा गाँव में 10 -12 आतंकवादियों ने निहत्थे गाँववालों पर हमला कर दिया । रात के अँधेरे में आये आतंकवादी सेना की वर्दी पहने हुए थे, उन्होंने गाँव वालोंको उनके घरों से बाहर निकल कर एक कतार में खड़ा किया और गोलियों से भून डाला। 22 हिन्दुओं का नरसंहार करने वाले दरिंदों ने 3 साल की मासूम बच्ची तक को नहीं छोड़ा। इसी हमले के साथ उधमपुर ज़िले के बसंतगढ़ क्षेत्र में लालों गाँव में भी आतंकवादियों ने 13 हिन्दू चरवाहों का अपहरण किया और उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया। दोनों ही नरसंहारों के लिए पाकिस्तान समर्थित लश्कर ए तैयबा ज़िम्मेदार था। माना जाता है कि इस नरसंहार का ध्येय था सरकार और हुर्रियत कॉफ्रेंस के बीच होने वाली वार्ता को रोकना। 
 
 
Doda Massacre 30 april 2006 story
 
 
30 अप्रैल, 2024 को इस दुखद घटना की 18वीं बरसी है।
 
 
कश्मीर घाटी में जब कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार प्रारम्भ हुआ तो यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया थी कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं। सन 1984 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापकों में से एक मकबूल बट को फांसी दी जा चुकी थी और 1986 में अनंतनाग में दंगे हो चुके थे। उसके पश्चात धीरे-धीरे स्थिति बिगड़ती गई. सन 1989 में पूरे विश्व में सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटेनिक वर्सेज़’ का विरोध चरम पर था जिसकी आग कश्मीर तक भी पहुँची। परिणामस्वरूप 13 फरवरी को श्रीनगर में दंगे हुए जिसमें कश्मीरी हिन्दुओं को बेरहमी से मारा गया।
 
 
वे कराहते रहे और पूछते रहे कि रुश्दी के अल्फाजों का बदला उनकी आवाज खत्म कर क्यों लिया जा रहा है लेकिन कश्मीरी हिन्दुओं की सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था। पंडितों के नरसंहार और दंगों के समय सरकार और उनके सहयोगी दल अलगाववादियों के सम्मुख भीगी बिल्ली बन जाते थे। अलगाववादी जानते थे कि कश्मीरी हिन्दू घाटी से आसानी से नहीं जाएंगे। लिहाजा इसलिए सुनियोजित ढंग से पहले उन कश्मीरी हिन्दुओं को निशाना बनाया गया जिन्हें जनता सम्मान देती थी।
 
 
कश्मीरी हिन्दुओं का घाटी से विस्थापन की त्रासदी को 3 दशक बीत चुके हैं। बीते इन 32-33 वर्षों बाद भी कश्मीरी हिन्दुओं के भीतर वो खूनी मंजर, वो दर्द आज भी हरा है। बीते इन वर्षों में कितनी सरकारें आई और गई कई प्रधानमंत्री आए वादे हुए लेकिन आज तक कश्मीरी हिन्दुओं की घर वापसी का सपना अधुरा है। हालाँकि मौजूदा दौर में वर्तमान सरकार कश्मीरी हिन्दुओं को उनका हक़ वापस दिलाये जाने की दिशा में प्रयासरत है। PM पैकेज के तहत घाटी में कार्यरत अनेक कश्मीरी हिन्दू परिवारों को घर दिए जाने का कार्य किया जा रहा है। साथ ही विस्थापित हुए कश्मीरी हिन्दुओं को भी पुनः स्थापित किए जाने की दिशा में कार्य किया जा रहा है। लेकिन इस बात से किनारा नहीं किया जा सकता कि इस्लामिक जिहाद का दंश झेल चुके आज भी लाखों हजारों कश्मीरी हिन्दुओं को इन वादों के पूरा होने और अपने घर लौटने का इंतजार है।