22 अक्टूबर सन 1947 को महाराजा हरि सिंह ने जब मुजफ्फराबाद पर पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जे की खबर सुनी, तो उन्होंने खुद दुश्मनों से मोर्चा लेने का फैसला किया। महाराजा हरि सिंह ने सैन्य वर्दी पहनकर ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को बुलाया। ब्रिगेडियर सिंह जब महाराजा हरि सिंह के पास पहुंचे तो उन्होंने महाराजा को मोर्चे से दूर रहने के लिए मनाते हुए खुद दुश्मन का आगे जाकर मुकाबला करने का निर्णय लिया। साथ ही महाराजा को सुझाव दिया कि वह श्रीनगर में रह कर भारत के साथ विलय पर अपनी बातचीत को तेज करें। महाराजा ने भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से फोन पर बातचीत कर राज्य के हालात को बताया लेकिन भारत ने एक बार फिर विलय को लेकर अपनी बात दोहराई, लिहाजा महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय होने में अपनी मंजूरी दे दी।
दूसरी तरफ राजेंद्र सिंह महाराजा के साथ बैठक के बाद जब बादामी बाग पहुंचे तो वहां 100 के करीब सिपाही मिले। उन्होंने सैन्य मुख्यालय को संपर्क कर अपने लिए अतिरिक्त सैनिक मांगे। मुख्यालय में मौजूद ब्रिगेडियर फकीर सिंह ने उन्हें 70 जवान और भेजने का यकीन दिलाया, इसी दौरान महाराजा ने खुद मुख्यालय में कमान संभालते हुए कैप्टन ज्वाला सिंह को एक लिखित आदेश के साथ उड़ी भेजा। इसमें पत्र में लिखा गया था –
“ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को आदेश दिया जाता है, कि वह हर हाल में दुश्मन को आखिरी सांस और आखिरी जवान तक उड़ी के पास ही रोके रखें।”
कैप्टन सिंह 24 अक्टूबर की सुबह एक छोटी सैन्य टुकड़ी के संग उड़ी पहुंचे। उन्होंने सैन्य टुकड़ी ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को सौंपते हुए महाराजा हरि सिंह का आदेश सुनाते हुए पत्र सौंपा। हालात को पूरी तरह से विपरीत और दुश्मन को मजबूत समझते हुए ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने एक रणनीति के तहत कैप्टन नसीब सिंह को उड़ी नाले पर बने एक पुल को उड़ाने का आदेश दिया, ताकि दुश्मन को रोका जा सके। आदेश मिलते ही नसीब सिंह ने नाले पर बने उस पुल को ध्वस्त कर दिया जिसकी मदद से पाकिस्तानी सेना उडी में दाखिल हो सकती थी। पुल उड़ाने के कारण दुश्मन सेना को कुछ देर तक उस पार ही रुकना पडा। लेकिन जल्द ही वहां गोलियों की बौछार शुरू हो गई। करीब 2 घंटे बाद दुश्मनों ने फिर हमला बोल दिया।
दुश्मन की इस चाल को भांपते हुए ब्रिगेडियर सिंह के आदेश पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने अन्य बचे सभी पुलों को भी उड़ा दिया। यह काम शाम साढ़े 4 बजे तक समाप्त हो चुका था, लेकिन कई पाकिस्तानी सैनिक पहले ही इस तरफ आ चुके थे। इसके बाद ब्रिगेडियर ने रामपुर में दुश्मन को रोकने का फैसला किया और रात को ही वहां पहुंचकर उन्होंने अपने लिए बेस तैयार किया।रात भर खंदकें खोदने वाले जवानों को सुबह तड़के ही दुश्मन की गोलीबारी झेलनी पड़ी। मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी कि पूरा दिन दुश्मन गोलाबारी करने के बावजूद एक इंच नहीं बढ़ पाया।
दुश्मन की एक टुकड़ी ने पीछे से आकर सड़क पर अवरोधक तैयार कर दिए ताकि महाराजा के सिपाहियों को वहां से निकलने का मौका ना मिले। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को दुश्मन की योजना का पता चल गया और उन्होंने 27 अक्टूबर की सुबह 1 बजे अपने सिपाहियों को पीछे हटने और सेरी पुल पर डट जाने को कहा। पहला अवरोधक तो उन्होंने आसानी से हटा लिया, लेकिन बोनियार मंदिर के पास दुश्मन की फायरिंग की चपेट में आकर सिपाहियों के वाहनों का काफिला थम गया।
पहले वाहन का चालक दुश्मन की फायरिंग में वीरगति को प्राप्त हो गया। इस पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने अपनी गाड़ी से नीचे आकर जब देखा तो पहले तीनों वाहनों के चालक दुश्मनों की गोलीबारी में मारे जा चुके थे, उन्हें ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह नजर नहीं आए, वह अपने वाहन चालक के वीरगति प्राप्त होने पर खुद ही वाहन लेकर आगे निकल गए थे। सेरी पुल के पास दुश्मन की गोलियों का जवाब देते हुए वह गंभीर रूप से घायल हो गए। उनकी दाहिना पैर पूरी तरह जख्मी था। उन्होंने उसी समय अपने जवानों को आदेश दिया कि वह पीछे हटें और दुश्मन को रोकें। उन्हें जब सिपाहियों ने उठाने का प्रयास किया तो वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि वह उन्हें पुलिया के नीचे आड़ में लिटाएं और वह वहीं से दुश्मन को रोकेंगे। 27 अक्टूबर सन 1947 की दोपहर को सेरी पुल के पास ही ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।
अलबत्ता, 26 अक्टूबर सन 1947 की शाम को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर समझौता हो चुका था। 27 अक्टूबर को जब राजेंद्र सिंह मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान हुए तो उस समय कर्नल रंजीत राय भारतीय फौज का नेतृत्व करते हुए श्रीनगर एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे। युद्ध विशेषज्ञों का दावा है कि अगर वह पीछे नहीं हटते तो पाकिस्तानी सैनिक 23 अक्टूबर की रात को ही श्रीनगर में दाखिल हो गए होते। जिसके बाद जम्मू कश्मीर को बचा पाना मुश्किल होता। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने जो फैसला लिया था वह कोई चालाक और युद्ध रणनीति में माहिर व्यक्ति ही ले सकता था। उनके इसी फैसले और बलिदान के कारण जम्मू कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बचा।