15 अप्रैल, 1952 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शपथ लेते हुए कहा, "वे विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे" और भारत की प्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का वायदा किया। लेकिन मात्र दो महीनों के भीतर ही प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी शपथ को झूठा साबित कर दिया। उन्होंने उन पहलुओं को दरकिनार कर दिया, जिनके समाधान के लिए देश के नागरिक उम्मीद लगाए बैठे थे। यह घटना भारत के सबसे उत्तरी राज्य जम्मू-कश्मीर से जुड़ी है, जिसकी कमान शेख अब्दुल्ला के हाथों में थी। शेख अब्दुल्ला अपनी इस्लामिक कट्टरपंथी छवि और राज्य में अलगाववाद फैलाने के दोषी थे।
दिल्ली में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी शेख की पृथकतावादी मानसिकता का विरोध कर रहे थे। अपने जीवन के अंतिम दिन तक वे जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय की वकालत करते रहे, जबकि शेख संवैधानिक प्रावधानों का मजाक उड़ाते रहे और नेहरू उस पर चुप्पी साधे रहते। शेख ने 7 जून, 1952 को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा में प्रस्ताव रखा कि जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज लाल रंग का होगा। शेख के शब्द 'जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज' संविधान की भावना के खिलाफ थे, क्योंकि भारत में केवल तिरंगा ही राष्ट्रीय ध्वज है।
भारतीय जनसंघ की प्रतिक्रिया
14 जून को भारतीय जनसंघ की कार्यसमिति ने इसके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया। जनसंघ का मानना था कि राज्य की संविधान सभा का यह फैसला भारत की प्रभुसत्ता और संविधान की भावना के विरुद्ध है। भारत ने अपना राष्ट्रीय ध्वज 22 जुलाई, 1947 को स्वीकार किया था, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने प्रस्तुत किया था। नेहरू ने तब कहा था, "हमने ध्वज की खूबसूरत रूपरेखा के बारे में सोचा, क्योंकि किसी भी देश का प्रतीक खूबसूरत होना चाहिए।"
नेहरू का कहना ठीक था कि देश का ध्वज उसके राष्ट्रीय प्रतीक या पहचान के तौर पर जाना जाता है। जब प्रधानमंत्री से पत्रकारों ने पूछा कि वे शेख को ऐसा करने से क्यों नहीं रोकते, तो नेहरू का जवाब था, "मैं केवल सलाह दे सकता हूँ, लेकिन वे क्या करते हैं या नहीं, यह मेरे हाथ में नहीं है।" डॉ. मुखर्जी ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा कि यदि यह व्यवस्था भारत की एकता और अखंडता को प्रभावित नहीं करती, तो इसे पूरे देश के सभी राज्यों में लागू कर देना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि आखिर शेख अब्दुल्ला की मांग के समक्ष आत्मसमर्पण क्यों किया जा रहा है?
कांग्रेस और जनसंघ का विरोध
उन दिनों के समाचार-पत्रों के अनुसार, कांग्रेस चाहती थी कि भारतीय ध्वज जम्मू-कश्मीर में केवल दो अधिकृत अवसरों पर फहराया जाए, जबकि राज्य का ध्वज अकेले फहरेगा। जनसंघ का मानना था कि नेशनल कांफ्रेंस अपना अलग ध्वज रख सकती है, लेकिन सरकार के रूप में शेख अब्दुल्ला को तिरंगा ही फहराना होगा।
शेख की कल्पनाएं इससे भी आगे बढ़ गई थीं। वे जम्मू-कश्मीर को 'देश' कहकर संबोधित करते थे और वहां सदर-ए-रियासत (राष्ट्रपति) और खुद को वजीर-ए-आजम (प्रधानमंत्री) घोषित कर रखा था। जबकि भारत के संविधान में इसका कोई प्रावधान नहीं था। चूंकि जम्मू-कश्मीर भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र में नहीं आता था, राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां वहां लागू नहीं थीं और मौलिक अधिकारों में भी कटौती कर दी गई थी। शेख ने इस स्थिति को अपने व्यक्तिगत हितों के लिए भुनाना शुरू कर दिया और जम्मू-कश्मीर को भारत के अंतर्गत एक अलग गणराज्य बनाने की कोशिश तेज कर दी।
जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन
26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर का भारत में कानूनी तौर पर अधिमिलन तो हो गया, लेकिन न्यायिक और संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने में अड़चनें पैदा की गईं। शेख ने संविधान के प्रावधान के खिलाफ जाकर राजप्रमुख के बजाय सदर-ए-रियासत का पद रखा, जिसकी नियुक्ति का अधिकार भारत के राष्ट्रपति से छीनकर जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को दे दिया गया।
जनसंघ की पहल
जनसंघ की केंद्रीय कार्यसमिति ने 14 जून की बैठक में कहा कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और राज्य के आर्थिक और सामाजिक हित में उसका भारत में पूर्ण विलय होना चाहिए। लेकिन नेहरू पर शेख का गहरा प्रभाव था, इसलिए प्रधानमंत्री उनकी बात नहीं सुनते थे। डॉ. मुखर्जी ने अनुरोध किया कि प्रधानमंत्री को उन लोगों के प्रति धैर्य रखना चाहिए, जो राज्य के संबंध में उनकी नीतियों से अलग विचार रखते हैं।
जनसंघ ने राष्ट्रीय चर्चा की मांग की और डॉ. मुखर्जी ने देशभर में जागरूकता अभियान चलाया। लेकिन नेहरू ने शेख के मंसूबों को अपनी मंजूरी दे दी। 24 जुलाई, 1952 को दिल्ली एकॉर्ड के नाम से जाना जाने वाला यह समझौता संसद को संज्ञान में लिए बिना किया गया। इसकी शर्तों के अनुसार, नेहरू ने राज्य का अपना ध्वज, सदर-ए-रियासत के निर्वाचन, मौलिक अधिकारों का हनन और केंद्र की शक्तियों को क्षीण करने को अपनी सहमति दे दी।