Doda Massacre Story : 25 साल पहले जब कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी फ़ौज की कमर टूट गई थी और निर्धारित समय सीमा के भीतर उन्हें भारतीय भूमि खाली करने पर मजबूर कर दिया गया था। तब आज ही के दिन 19 जुलाई 1999 को जम्मू कश्मीर के डोडा जिले के ठाठरी तहसील में 5 भाइयों का कुनबा करीब दर्जनभर आतंकवादियों से अपने ही घर में लड़ रहा था। डोडा से 50 किमी दूर लेहोटा गाँव में एक दूसरे से सटे 5 घर थे जिनमें 5 परिवार रहते थे। उन पर आतंकवादियों 19 जुलाई को आतंकवादियों ने हमला कर दिया था।
कुनबे के 20 सदस्य तेरह घंटों तक आतंकियों से लड़ते रहे। रात के अँधेरे में जब चारों तरफ से गोलियाँ चल रही थीं तब शकुंतला और संतोषा बच्चों को लेकर भाग निकलीं। अगले सवेरे जब जीवित बची शकुंतला सीआरपीएफ को बुलाकर लाई तब दुनिया को परिवार के 15 सदस्यों की लाशें मिलीं, जिनमें चार मर्द विलेज डिफेन्स कमेटी के सदस्य भी थे। विलेज डिफेन्स कमेटियाँ नब्बे के दशक में आतंकियों से लड़ने के लिए बनाई गई थीं।
24 साल के जोगिंदर उस समय बच्चे थे जब उनके कुनबा आतंकियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया था। जोगिंदर का लालन पालन जम्मू के अनाथालय में हुआ था। आज वे उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले हैं। उन्हें पुणे के एक एनजीओ से पढ़ने के लिए सहायता मिल है। बीस साल पहले हुए कत्ल-ए-आम के बाद जीवित बचे सदस्यों और बाद में पैदा हुए वंशजों में से कोई भी उस गाँव नहीं गया। सरकार ने कुनबे के जीवित बचे सदस्यों को मुआवजे के रूप में जमीन का एक टुकड़ा, एक-एक लाख रुपए और 5 नौकरियाँ दी थीं। हमले में बचे सदस्यों में को आज भी अपने परिजनों की चीखें और खून से सनी लाशें भयभीत करती हैं। वो ऐसी यादे हैं जो कभी मिट नहीं सकतीं।
उस जमाने में फारुख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे और उनका बेटा केंद्र में राज्यमंत्री था। अमरीका भी जम्मू कश्मीर समस्या के समाधान की बात करता था और कारगिल युद्ध परमाणु युद्ध में न बदल जाए इसके प्रयास किए थे। लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य की असल समस्या कारगिल की चोटियों पर चढ़ आए पाकिस्तानी नहीं थे बल्कि वह आतंकवाद था जो आज भी कश्मीरियों से उनका हक़, ज़मीर, ज़मीन और जान सब कुछ छीन रहा है। इस आतंकवाद से लड़ने के लिए भारत के सुरक्षा बल पूरी तरह समर्पित हैं।