मोहम्मद अली जिन्ना ने 1929 में 14 मांगों का एक ज्ञापन तैयार किया था। जिसका मकसद एक अलग इस्लामिक देश का गठन करना था। इसका प्रारूप हद्द से ज्यादा कट्टर और इस्लाम को छोड़कर अन्य धर्मों की भावनाओं को आहत करने वाला था। इसके कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे : मुसलमानों को गौ हत्या की छूट होगी, कोई भी ऐसा क्षेत्र जहां मुसलमान बहुसंख्यक हों, वहां परिसीमन नहीं किया जायेगा, वन्देमातरम समाप्त होगा और तिरंगे में बदलाव अथवा मुस्लिम लीग के झंडे को उसके बराबर का दर्जा मिले।
ऑल इंडिया मुस्लिम लीग अपनी इन सांप्रदायिक मांगों पर अड़ गयी और भारत का विभाजन धर्म के आधार पर कर दिया गया। हालाँकि, ब्रिटिश संसद ने भारत की जमीनों का बंटवारा तो कर दिया लेकिन आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया कि किस धर्म के व्यक्ति को कहा रहना है? इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 की पहली धारा के अनुसार 15 अगस्त, 1947 को दो डोमिनियन का गठन किया गया। एक राष्ट्र भारत था, तो दूसरा नया देश पाकिस्तान बनाया गया।
‘मिशन विद माउंटबैटन’ पुस्तक के लेखक एलन कैंपबेल-जोहानसन विभाजन पर लिखते है, “21 सितम्बर, 1947 की सुबह गवर्नर-जनरल के डकोटा हवाई जहाज से माउंटबैटन, इस्में, वेरनों, एलन कैंपबेल-जोहानसन (लेखक), नेहरू, पटेल, नियोगी, राजकुमारी अमृत कौर, जनरल लॉकहार्ट, एच.एम. पटेल, और वी. शंकर ने पूर्वी एवं पश्चिमी पंजाब के दौरा किया।” उन्होंने रावी नदी के आसपास के इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करते हुए बताया कि यह लिखित इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन है। (पृष्ठ 232)
एक अन्य पुस्तक ‘द लास्ट डेज ऑफ़ द ब्रिटिश राज’ में लियोनार्ड मोसेली लिखते है, “अगस्त 1947 से अगले नौ महीनों में 1 करोड़ 40 लाख लोगों की विस्थापन हुआ। इस दौरान करीब 600,000 लोगों की हत्या कर दी गयी। बच्चों को पैरों से उठाकर उनके सिर दिवार से फोड़ दिए गए, बच्चियों का बलात्कार किया गया, लड़कियों का बलात्कार कर उनके स्तन काट दिए गए और गर्भवती महिलाओं के आतंरिक अंगों को बाहर निकाल दिया गया।” (पृष्ठ 280) इन घटनाओं को देखते हुए सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू को 2 सितम्बर, 1947 को पत्र लिखा, “सुबह से शाम तक मेरा पूरा समय पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिक्खों के दुःख और अत्याचारों की कहानियों में बीत जाता है।”
हालाँकि, 20 जुलाई, 1947 को यह नियम बना दिया गया था कि दोनों देशों द्वारा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की जाएगी। भारत के गवर्नर-जनरल माउंटबैटन ने इस इसकी सार्वजानिक घोषणा भी कर दी थी। बावजूद इसके, पाकिस्तान ने इसे नजरंदाज किया और वहां हिन्दुओं और सिक्खों का नरसंहार जारी रहा। पंजाब के गवर्नर जनरल फ्रांसिस मुडी ने जिन्ना को 5 सितम्बर, 1947 को पत्र लिखा, “मुझे नहीं पता कि सिक्ख सीमा कैसे पार करेंगे। महत्वपूर्ण यह है कि हमें जल्द-से-जल्द उनसे छुटकारा पाना होगा।”
पाकिस्तान के सिंध प्रान्त से भी हिन्दुओं पर हमलें की ख़बरें लगातार मिल रही थी। प्रधानमंत्री नेहरू ने 8 जनवरी, 1948 को बी.जी. खेर को एक टेलीग्राम भेजा, “स्थितियों को देखते हुए (सिंध में गैर-मुसलमानों की हत्या और लूट-पाट हो रही थी), सिंध में हिन्दू और सिक्ख लोगों को निकालना होगा। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, विदेश मंत्रालय, 51-6/48) अगले दिन प्रधानमंत्री ने खेर को एक पत्र भी लिखा, “सिंध में हालात ख़राब है और मुझे डर है कि हमें भारी संख्या में निष्क्रमण देखना होगा। हम उन्हें सिंध में नहीं छोड़ सकते।” पाकिस्तान में हिन्दुओं के नरसंहार को लेकर प्रधानमंत्री परेशान थे और उन्होंने सरदार पटेल को भी वहां की स्थितियां बताने के लिए 12 जनवरी, 1948 को एक पत्र लिखा। सरदार ने पहले ही उनकी सुरक्षा और पुनर्वास के प्रयास शुरू कर दिए थे। उनका स्पष्ट मत था कि पाकिस्तान हिन्दुओं और सिक्खों का रुकना संभव नहीं है।
पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं और सिक्खों का भारत में पुनर्वास एक जटिल कार्य था। प्रधानमंत्री नेहरू ने 15 नवम्बर, 1950 को संसद में यह स्वीकार किया था कि किसी अन्य देश को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा, जैसी विस्थापन की समस्या भारत के सामने थी। देश के पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का चुनावी घोषणापत्र खुद जवाहरलाल नेहरू ने तैयार किया था। इसे कांग्रेस कार्यसमिति ने बैंगलोर में 13 जुलाई, 1951 को पारित किया। इसमें नेहरू लिखते है, “पिछले चार सालों की सबसे बड़ी समस्या पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों का पुनर्वास है। जिसपर तात्कालिक और लगातार ध्यान देने की जरुरत है।” इस घोषणा पत्र में कांग्रेस ने बताया कि साल 1951-52 में विस्थापितों के पुनर्वास और राहत के लिए 140 करोड़ रुपए खर्च किये जायेंगे। इसमें उनके लिए दुकानें और औद्योगिक क्षेत्र के अलावा 86,000 नए घर बनवाना भी शामिल था।
पाकिस्तानी गैर-मुसलमानों को देशभर में बसाना भारत सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल था। फिर भी, वहां बहुत बड़ी संख्या में गैर-मुसलमान रह गए थे, जिनका बाद में भी विस्थापन जारी रहा। पहली लोकसभा में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य सी. पी. गिडवानी ने 6 दिसंबर, 1952 को बताया, “हमारा सिन्धी का एक अखबार है जोकि बम्बई से निकलता है, उसने लिखा है कि परसों एक जहाज करांची से आया, उसमें 23 हिन्दू आये, उसमें से एक ने बयान दिया है कि एक हिन्दू किसी गाँव में जा रहा था, उसका क़त्ल करके उसकी लाश को एक बोरी के अन्दर डाल दिया गया। इसलिए विवश होकर हमें यहाँ आना पड़ा।”
भारत सरकार ने लोकसभा में 1959 को एक ब्यौरा दिया गया, जिसके अनुसार राजस्थान, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, मणिपुर, मध्य प्रदेश, बिहार, असम और अंडमान निकोबार में पाकिस्तानी गैर-मुसलमानों को बसाया गया था। तीसरी पंचवर्षीय योजना में इस पुनर्वास कार्यक्रम का पूरा विवरण दिया गया था। जिसमें बताया गया है कि पाकिस्तान से 89 लाख धार्मिक प्रताड़ित गैर-मुसलमान भारत आये जिसमे 47 लाख पश्चिम पाकिस्तान और बाकि पूर्वी पाकिस्तान से थे। साल 1947-48 और 1960-61 के बीच कुल 239 करोड़ इन विस्थापितों के पुनर्वास पर तय किये गए थे। जिसमें 133 करोड़ पश्चिम पाकिस्तान और 106 करोड़ पूर्वी पाकिस्तान के लिए आवंटित किए गए थे। पहली पंचवर्षीय योजना से पहले 70.87 करोड़, पहली पंचवर्षीय योजना में 97.55 करोड़ और दूसरी पंचवर्षीय योजना में 70.32 करोड़ की राशि खर्च की गई। यही नही, इस दौरान सरकार ने 33,000 परिवारों को अस्थाई तंबुओं से निकालकर जमीनें वितरित की थी। लगभग 110,000 लोगों को व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा भी दी गयी थी।
आज कांग्रेस नागरिकता (संशोधन) कानून का विरोध कर रही है। जिसका कोई आधार नही ही, वास्तव में उनके नेताओं को अपने इतिहास को जानने और समझने की जरूरत है। उस दौर में प्रधानमंत्री नेहरू के केंद्रीय मंत्रिमंडल में राहत और पुनर्वास के लिए एक अलग से मंत्रालय भी बनाया गया था। जिसका कभी किसी ने विरोध नही किया और विश्व के सबसे बड़े विस्थापन को नियमित किया गया था। वर्तमान भारत सरकार ने इसी प्रक्रिया का सरलीकरण किया है।