जम्मू-कश्मीर के इतिहास में शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की जुगलबंदी ने राज्य को एक ऐसी अंधेरी खाई में धकेल दिया, जिसका परिणाम हम आज अलगाववाद और आतंकवाद के रूप में देख रहे हैं। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब देशी रियासतों के पास दो विकल्प थे—या तो वे भारतीय डोमिनियन में शामिल हों या पाकिस्तानी डोमिनियन का हिस्सा बनें। यह निर्णय लेने का अधिकार कानूनन केवल रियासतों के महाराजाओं के पास था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने इस अधिकार का उपयोग करते हुए 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन भारत में स्वीकार किया।
यह रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया का पहला कदम था। इसके बाद दूसरा कदम था भारतीय संविधान का निर्माण, जिसके लिए संघीय संविधान सभा का गठन हुआ। सभी रियासतों को इस संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेजने थे। जम्मू-कश्मीर से जनसंख्या के आधार पर चार प्रतिनिधि भेजे जाने थे, जिनमें से दो का चयन महाराजा हरि सिंह को करना था और दो का चुनाव होना था। शेख अब्दुल्ला इस व्यवस्था से असंतुष्ट थे, और इसी असंतोष के चलते उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर 27 मई 1949 को नियम बदलवाया, जिससे अब चारों प्रतिनिधियों का मनोनयन शेख अब्दुल्ला की सहमति से ही किया जा सकता था।
इस प्रकार, महाराजा हरि सिंह से उनके अधिकार छीन लिए गए। शेख अब्दुल्ला के कहने पर महाराजा हरि सिंह को चार प्रतिनिधियों—शेख अब्दुल्ला, मिर्जा बेग, मौलाना मोहम्मद सैय्यद मसूदी, और मोती लाल बेगरा—को मनोनीत करना पड़ा, जिन्हें 6 जून 1949 को संघीय संविधान सभा का सदस्य बनाया गया। इसके बाद महाराजा हरि सिंह को एक षड्यंत्र के तहत जून 1949 में राज्य छोड़कर मुंबई जाना पड़ा, और उनकी वापसी केवल उनकी अस्थियों के रूप में ही हो सकी। महाराजा के राज्य से बाहर होने के बाद शेख अब्दुल्ला ने अपनी मनमानी शुरू कर दी, और राज्य में अलगाववाद के बीज बोए, जो आज भी नासूर बने हुए हैं।
अनुच्छेद 370 और महाराजा हरि सिंह की उपेक्षा
अक्सर यह दावा किया जाता है कि अनुच्छेद 370 वह शर्त थी, जिसके आधार पर महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय स्वीकार किया था। यह दावा पूरी तरह से निराधार है। जम्मू-कश्मीर का भारत में अधिमिलन 26 अक्टूबर 1947 को हुआ, जबकि अनुच्छेद 370 पर चर्चा 17 अक्टूबर 1949 को भारतीय संविधान में हुई। इस दौरान, महाराजा हरि सिंह शेख अब्दुल्ला और नेहरू के षड्यंत्रों के चलते जम्मू-कश्मीर के मामलों से पूरी तरह दूर हो चुके थे।
नेहरू और शेख अब्दुल्ला की जोड़ी ने महाराजा हरि सिंह की अनुपस्थिति में राज्य को लेकर अगला कदम उठाया। जहां अन्य सभी रियासतें संघीय संविधान के अंतर्गत धीरे-धीरे सभी प्रावधानों को स्वीकार कर रही थीं, वहीं शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर में केवल तीन विषय—संचार, सुरक्षा, और विदेशी मामले—संघीय संविधान के अधीन हों, और बाकी विषयों पर राज्य की सरकार का अधिकार हो। शेख अब्दुल्ला ने इन प्रावधानों को संघीय संविधान में भी शामिल करवाना चाहा, और अंततः यह अनुच्छेद 370 के रूप में भारतीय संविधान में शामिल हो गया।
शेख अब्दुल्ला का तर्क था कि चूंकि जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, और उसने भारत में शामिल होने का निर्णय लिया है, इसलिए उसे विशेषाधिकार मिलना चाहिए। यह तर्क पूरी तरह से गलत था, क्योंकि रियासतों के विलय में धर्म की कोई भूमिका नहीं थी। उदाहरण के तौर पर, अमरगढ़ जैसी हिन्दू बहुल रियासतें भी मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में शामिल हुई थीं। लेकिन शेख अब्दुल्ला अपनी मनमानी पर अड़े रहे, क्योंकि उनके रास्ते में खड़े एकमात्र व्यक्ति, महाराजा हरि सिंह, को उन्होंने पहले ही हटा दिया था।
उस समय भारत सरकार का मानना था कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था है, जो राज्य में विशेष परिस्थितियों के कारण कुछ समय के लिए लागू की गई है। सरकार को आशा थी कि जब राज्य की विशेष परिस्थितियाँ समाप्त होंगी, तब अनुच्छेद 370 की व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी। लेकिन दुर्भाग्यवश, इस पूरी प्रक्रिया में नेहरू ने महाराजा हरि सिंह को विश्वास में लेने के बजाय शेख अब्दुल्ला को हर कदम पर आगे रखा। शेख अब्दुल्ला बाद में नेहरू के इस विश्वास की सबसे बड़ी बाधा बन गए।
अंततः, शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह द्वारा निष्पादित विलय पत्र का ही उपयोग कर अनुच्छेद 370 को संविधान में शामिल करवा लिया। यह एक विडंबना थी कि जिस विलय पत्र को महाराजा हरि सिंह ने अन्य रियासतों के शासकों की तरह केवल हस्ताक्षर किया था, उसी का उपयोग उनके खिलाफ किया गया। महाराजा हरि सिंह की उपेक्षा करके शेख अब्दुल्ला ने 17 अक्टूबर 1949 को अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की, जब अनुच्छेद 370 को भारतीय संविधान में शामिल कर लिया गया।