जम्मू संभाग में डोगरा राजवंश के संस्थापक महाराजा गुलाब सिंह थे। गुलाब सिंह का राजा के तौर पर राजतिलक महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया था। गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार लद्दाख, गिलगित और बल्तिस्तान तक किया था। 1846 में कश्मीर घाटी भी इसमें शामिल हो गया था। महाराजा गुलाब सिंह की मुत्यु श्रीनगर में 30 जून 1857 में हुई थी। उनकी मौत के बाद उनके 26 साल के बेटे रणवीर सिंह राजगद्दी पर बैठे। रणवीर सिंह के चार पुत्र हुए थे। सबसे बड़े पुत्र प्रताप सिंह, राम सिंह, अमर सिंह और लक्ष्मण सिंह थे। लक्ष्मण सिंह की मृत्यु तो 5 साल की अल्प आयु में ही हो गई थी। वहीं दूसरे पुत्र राम सिंह की मृत्यु 45 साल की आयु में हुई थी।
लगभग 30 साल राज्य करने के बाद 55 साल की उम्र में 12 सितंबर, 1885 को रणवीर सिंह की मृत्यु हो गई और परंपरानुसार उनके बड़े सुपुत्र प्रताप सिंह का राजतिलक हुआ। राजा बनने के बाद प्रताप सिंह ने राज्य को बखूबी संभाला और राज्य की सीमाओं का विस्तार किया था। 1891 में प्रताप सिंह की सेना ने गिलगित की हुंजा वैली, नागर और यासीन वैली को भी अपने राज्य में मिला लिया था। हालांकि अंग्रेजी शासन इस दौरान प्रताप सिंह की सत्ता को चुनौती देने की लगातार कोशिश कर रहे थे। लेकिन तमाम साजिशों के बावजूद भी महाराजा प्रताप सिंह डोगरा राजवंश में सबसे ज्यादा समय 40 सालों सत्ता की कमान संभाली थी। अपने कार्यकाल के दौरान महाराजा प्रताप सिंह ने अनेकों सामाजिक, आर्थिक विकास कार्य करवाये थे।
जिसकी झलक आज भी जम्मू-कश्मीर में देखने को मिलती है। लेकिन महाराजा प्रताप सिंह की कोई संतान नहीं थी। प्रताप सिंह के राजगद्दी पर बैठने के 10 साल बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह के घर हरि सिंह का जन्म हुआ था। जिसके बाद उनके परिवार में कुल केवल 3 ही पुरूष जीवित थे। महाराजा प्रताप सिंह जो रियासत के महाराजा थे, उनके भाई अमर सिंह, जो राजा थे और हरि सिंह जिनकी उम्र केवल कुछ ही दिनों की थी। हरि सिंह के जन्म पर सारी रियासत में खुशियाँ मनाई गई थी। उस दिन सभी महलों और पूरे जम्मू नगर को दीपों से सजाया गया था। पूरे राज्य में सभी मजहबों और जातियों के लोग खुशियों से झूम रहे थे। उन दिनों देश की रियासतों में राजपरिवार के घर राजकुमार का जन्म लेना आम जनता के लिए खुशियां मनाने का अवसर माना जाता था।
वहीं हरि सिंह के जन्म के बाद राज्य में मछलियाँ पकड़ने, शिकार खेलने और किसी भी प्रकार की जीव-हत्या पर कुछ दिनों के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया था। जब हरि सिंह अभी 14 साल के ही थे, तभी उनके पिता अमर सिंह की 1909 में मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार वंश परंपरा में केवल हरि सिंह ही बचे थे। महाराजा प्रताप सिंह हरि सिंह से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनकी पत्नी महारानी चडक हरि सिंह के प्रति बहुत ही शत्रुतापूर्ण रवैया रखती थी। उनकी कोशिश थी कि हरि सिंह राजगद्दी के उत्तराधिकारी ना बने। इसलिए वह सदा महाराजा प्रताप सिंह के मन में हरि सिंह के प्रति जहर भरती रहती थी।
इसलिए सभी व्यक्ति महाराजा प्रताप सिंह को तो यह कहते थे कि हरि सिंह रास्ते में हैं। लेकिन सच तो यह था कि वह हरि सिंह तक संदेश नहीं भेजवाते थे। अगर उस वक्त महारानी चडक अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो जाती तो प्रताप सिंह के बाद उत्तराधिकारी को लेकर निश्चय ही राज्य में एक विवाद खड़ा हो जाता। लेकिन उस वक्त महाराजा के मंत्री शोभा सिंह ने प्रयास किया कि महारानी अपनी चालों में सफल ना हो सके। उन्होंने अपनी कार देकर अपने एक विश्वसनीय व्यक्ति को गुलमर्ग से हरि सिंह को लाने के लिए भेजा था। इस प्रकार प्रताप सिंह की मृत्यु से पहले हरि सिंह उनसे मिलने में कामयाब हो गये और महाराजा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। राज्य और देश सब जगह खबर फैल गई की मरने से पहले महाराजा ने अपने भतीजे के माथे पर तिलक लगा दिया था। शोभा सिंह के इन प्रयासों में जनक सिंह और करतार सिंह ने भी उनका साथ दिया था।
महाराजा प्रताप सिंह की मुत्यु के बाद हरि सिंह का राजतिलक 23 सितंबर 1925 के दिन हुआ। जिसके बाद उन्होंने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के तौर पर अपना कार्य आरंभ किया था। लेकिन नई संवैधानिक व्यवस्था के काऱण वह कुल 22 वर्ष ही जम्मू-कश्मीर के राजा के तौर पर बने रहे। 26 अक्टूबर 1947 के दिन उन्होंने अपने जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन भारत में कर लिया। हालांकि जिस महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर राज्य की भलाई के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया था। उनके साथ उस वक्त के बुद्धिजीवियों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया था।
वहीं भारत के इतिहास में महाराजा हरि सिंह को हमेशा अनदेखा किया गया है। आज के परिवेश में भी सामाजिक न्याय की बात करने वालों को महाराजा हरि सिंह से सीख लेनी चाहिए। उन्होंने अपने राज्य में 1926 में सभी जाति धर्म के लोगों के लिए मंदिर के दरवाजे खुलवा दिये थे। इस मुद्दे से एक वाकया भी जुड़ा हुआ है कि जब महाराजा हरि सिंह ने दलितों को मंदिर में प्रवेश करने की बात की तो पंडितों ने इसका विरोध किया था। तब महाराजा ने कहा था कि या तो दलित मंदिर के अंदर प्रवेश करेंगे या पंडित मंदिर के बाहर जाएंगे।
बीस जून 1949 का दिन जम्मू-कश्मीर के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। महाराजा हरि सिंह ने एक पत्र में लिखा कि "स्वास्थ्य कारणों से मैंने अल्पकालिक अवधि के लिये रियासत से बाहर जाने का निर्णय किया है । इस अवधि में रियासत की सरकार से सम्बंधित अपने सभी अधिकारों और कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी मैं युवराज कर्ण सिंह जी को सौंपता हूँ । अत:मैं निर्देश देता हूँ और घोषणा करता हूँ कि मेरी अनुपस्थिति के दौरान रियासत तथा उसकी सरकार से जुड़े मेरे सभी अधिकारों और कर्तव्यों को युवराज को सौंपा जाये।
उन्होंने रीजैंट बनने के नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। इस बात से महाराजा हरि सिंह बहुत दुखी थे। कहा जाता है कि महाराजा ने अपने नाराजगी जाहिर करते हुये यह भी कहा था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर को भी कर्ण सिंह हाथ ना लगाये। 26 अप्रैल 1961 के दिन मुंबई में जब उनकी मृत्यु हुई, तो कर्ण सिंह विदेश में थे और उनकी गैरहाजिरी में ही महाराजा हरि सिंह का दाह संस्कार हुआ था।
1: जम्मू-कश्मीर में बाल विवाह प्रथा की समाप्ति
2: प्राइमरी शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य
3: विधवाओं को दूसरी शादी का अधिकार
4: सभी वर्ग के लोगों को एक कुएं से पानी लेने का अधिकार
5: जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की नींव रखी
6: जम्मू कश्मीर बैंक की शुरूआ़त
7: भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन
8: मुस्लिम छात्रों के लिए छात्रवृत्ति