संक्षिप्त परिचय
मेजर अन्नावी कृष्णास्वामी रामास्वामी (Major A.K Ramaswamy) केरल के पालघाट जिले के अयिलम गांव के रहने वाले थे। उनका जन्म 31 अक्टूबर 1924 को हुआ था। कुछ समय के उपरान्त रामास्वामी का परिवार केरल के दक्षिण मालाबार में चला गया और वहीं बस गया। 15 दिसंबर 1946 को 22 साल की उम्र में उन्हें 3 पैरा मराठा लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंट में नियुक्त किया गया था। वर्ष 1948 तक, उन्होंने लगभग 20 वर्षों की सेवा पूरी कर ली थी और मेजर के पद पर पदोन्नत हो गये थे।
भारत-पाकिस्तान युद्ध: 16 जनवरी 1948 (नौशेरा सेक्टर)
अक्टूबर 1947 में शुरू हुआ जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी हमलावरों का हमला लगातार जारी रहा और उन्होंने 24 दिसंबर 1947 को झंगर पर कब्जा कर लिया था। झांगर पर कब्जा करने से उन्हें नौशेरा और पुंछ की ओर बढ़ने का रणनीतिक लाभ मिला। हालाँकि दूसरी तरफ भारतीय सेना ने अपने पराक्रम से पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे ढकेलते हुए श्रीनगर और बडगाम पर उनके कब्जे की नियत को पूरी तरह से विफल कर दिया था। इसके अलावा बारामुला और उरी जैसी जगहों को को भी दुश्मनों के कब्जे से मुक्त करा लिया था। लेकिन अब भारतीय सेना के समक्ष नौशेरा को हमलावरों से मुक्त कराने की एक बड़ी जिम्मेदारी थी। इसके लिए झांगर पर पुनः कब्ज़ा करना बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। झंगर पर फिर से कब्ज़ा करने के लिए, भारतीय सेना ने रणनीति बनानी शुरू कर दी।
तय रणनीति के अनुसार भारतीय सेना ने नौशेरा-झांगर रोड पर 2 ब्रिगेड आगे बढ़ने की योजना बनाई। इस योजना के तहत 3 मराठा लाइट इन्फैंट्री की 2 कंपनियों को 50 पैरा ब्रिगेड के मोहरा के रूप में मार्च करने का काम सौंपा गया था। मेजर एके रामास्वामी उन कंपनियों में से एक की कमान संभाल रहे थे। 16 जनवरी 1948 को, नौशेरा में पैरा बटालियन की एक कंपनी की कमान संभालते हुए, मेजर रामास्वामी को अग्रिम कंपनी को मजबूत करने का आदेश मिला। जिसे दुश्मनों पर हमले का नेतृत्व करना था। पाकिस्तानी हमलावरों की तरफ से गोलीबारी जारी थी, जिसका भारतीय सेना की ओर से भी माकूल जवाब दिया जा रहा था। इस दौरान मेजर एके रामास्वामी की टुकड़ी ने दूसरी तरफ से दुश्मनों पर हमला कर उन्हें उलझाने का काम किया ताकि आगे बढ़ने में मदद मिले।
अपने साथी के लिए लगाई जान की बाजी
इस बीच अन्य बटालियन के जवानों के सुरक्षित अपने स्थान पर चले जाने के बाद, मेजर रामास्वामी की कंपनी की भी पीछे हटने की बारी थी। लेकिन तब तक दुश्मनों ने वापसी के मार्ग पर भारी गोलीबारी शुरू कर दी थी। दुश्मनों के हमले का जवाब देते हुए सुरक्षित स्थान तक कैसे पहुंचे इसके लिए एक खुले हिस्से पर मेजर एके रामास्वामी अपने एक साथी के साथ बातचीत कर रहे थे। तभी दुश्मनों की गोली आकर उनके एक साथी को लगी जिससे कि वे मौके पर ही गिर गए। ऐसे में मेजर रामास्वामी ने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की परवाह न करते हुए, अपने घायल सैनिक को सुरक्षित निकालने के लिए वापस भागे।
सर्वोच्च बलिदान के लिए सर्वोच्च सम्मान
अपने साथी सैनिक को बचाने के लिए जब मेजर रामास्वामी आगे बढ़ रहे थे, तभी उस घायल सैनिक ने इस अधिकारी को चेतावनी दी कि वह उसकी सहायता के लिए न आए और खुद को दुश्मन की आग में न झोंके। लेकिन मेजर एके रामास्वामी ने निडर होकर, वह आगे बढ़े और दुश्मन की गोलीबारी के बीच अपने साथी सैनिक को लगभग 15 गज तक उठाकर ले गए। हालाँकि ऐसा करते समय, मेजर रामास्वामी दुश्मन की गोलीबारी से गंभीर रूप से घायल हो गए। कई गोलियां लगने के कारण वे युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गए। मेजर रामास्वामी एक वीर सैनिक और साहसी अधिकारी थे जिन्होंने आगे बढ़कर युद्ध में अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया और अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। मेजर एके रामास्वामी को उनके असाधारण साहस, नेतृत्व और सौहार्द के लिए देश का दूसरा सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, "महावीर चक्र" से सम्मानित किया गया।